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'के वा असे णिबंधदि' इसको विभाषा करते हैं । प्रकृतिबंध का निर्देश करते समय तीन महादंडक प्ररूपणीय हैं । पंच ज्ञानाबरण, मार्गदर्शनावाजापासीमीयागमध्याखालीलह, कषाय, पुरुषवेद,
हास्य-रति, भय-जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक, तेजस, कार्माण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक आंगोपांग, वर्णादिचतुष्क, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु प्रादि चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, प्रसादि चतुष्क, स्थिरादि षट्क, निर्माण, उच्च गोत्र तथा पंच अंतरायों का बंधक प्रत्यतर मनुष्य वा मनुष्यनी, वा पंचिन्द्रिय तिर्यंच अथवा तिर्यचिनी हैं । यह प्रथम दण्डक है ।
दूसरा दंडक इस प्रकार है:--पंचज्ञानावरा, नवदर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलहकषाय, पुरुषवेद, भय-जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, प्रोदारिक-तैजस-कर्माण शरोर, समचतुरस्रसंस्थान, ववृषभसंहनन, प्रौदारिक-प्रांगोपांग, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अमुरुलघु चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, असादि चार, स्थिरादि छह, निर्माण, उच्चगोत्र तथा पंन अन्तरायों का बंधक अन्यतर देव या छह नरकों का नारको है । यह द्वितीय महादंडक है।
तीमरा महादंडक इस प्रकार हैं:--पंच ज्ञाताबरण, नव दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषभेद, हास्य रति, भयजुगुप्सा, तिर्यंचगति, पचेन्द्रिय जाति, प्रौदारिक तैजस कार्माणि शरीर, समचतुरनसंस्थान, ग्रौदारिक प्रांगोपांग, बवषभनाराच संहनन, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तियंचगति प्रायोग्यानुपूर्वी, प्रगुरुलघुचतुष्क, उद्योत, १ स्यात् प्रशस्तविहायोगति, सादि चतष्क स्थिरादि षटक, निर्माण, नोच गोत्र, तथा पंच अन्तरायों का बंधक कोई सातवें नरक का नारकी होता है।
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(१) 'सिया पमत्थविहायगदि' पाठ में 'सिया' शब्द अधिक प्रतीत होता है ( पृष्ठ १६६९)