SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविसागर जी म्हाराज स्थितिबंध-इन प्रकृतियों का स्थिति बंध अंत:कोड़ाकोडी सागर है । विशुद्धतर भाव होने के कारण अधिक स्थिति बन्ध होता है । ___ अनुभाग बंध-महादंडकों में जो अप्रशस्त प्रकृतियां कहीं हैं. उनमे विस्थानिक अनुभागबन्ध है तथा शेष बची प्रशस्त प्रकृतियों में चतुः स्थानिक अनुभागबंध है। प्रदेशबंध-पंच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरा, सानावेदनीय, द्वादश कषाय, पुरुषवेद, हास्यरति, भयजुगुप्सा, तिर्यचमति, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक-तैजस-कामणि शरीर, प्रौदारिक शरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्परां, तिर्यच मनुष्यगांत प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलुघु प्रादि चार, उद्योत, अस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, यशःकीति, निर्माण, उच्चगोत्र, पंच अन्तरायों का अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है। निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी चार, देवगति, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक शरीर प्रांगोपांग, ववृषभ संहनन, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, नीच गोत्र इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट तथा अनुत्कृष्ट स्थितिबंध होता है। ___ 'कदि प्रावलियं पविसंति' इस अंश को विभाषा इस प्रकार है । दर्शन मोह का उपशामक के कितनी प्रकृतियाँ उदायवली में प्रवेश करती हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में चूगि सूत्रकार कहते हैं "मून मथडीप्रो सथानो पविसति" (१७००) संपूर्ण मूल प्रकृतियां उदायवली में प्रवेश करती हैं, क्योंकि सभो मूल प्रकृतियों का उदय देखा जाता है। जो उत्तर प्रकृतियां विद्यमान हैं, उनका उदयावली में प्रवेश का निषेध नहीं है। प्रायु कर्म के विषय में यह ज्ञातव्य है कि यदि प्रबद्धायुष्क है, तो भुज्यमान एक प्रायु का ही उदय होगा।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy