________________
( १३२ ) एदग्हि गुणट्टाणे विभरिस-समयट्टियेहिं जीवेहि । पृश्वमपत्ता जम्हा होति अपुल्वा हु परिणामा ॥५१॥ गो० जी०
इस गुणस्थान में विसदृश समय में स्थित जीवों के पूर्व में दक:- अहोरामा सुधारसार अरिक्षामज होते हैं । इस कारण अपूर्वकरपा
नाम सार्थक है।
यहां भिन्न समय स्थित जीवों के भावों में समानता नहीं होती किन्तु एक समय स्थिति जीवों में समानता अथवा असमानता होती है। अंतमूहूर्तकाल में असंख्यातलोकप्रमाण परिणम होते हैं । यहाँ अनुकृष्टि नहीं होतो (१)
अपूर्वकरण . के प्रथम समय में जघन्य विशुद्ध सर्व स्तोक है । उससे उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणो है। द्वितीय समय में जवन्य विशुद्धि पूर्व से अनंत गुणी है। उससे उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणित है । अपूर्वकरण के प्रतिसमय असंख्यातलोक प्रमाण परिणाम होते हैं । इस प्रकार का क्रम निवर्गणा कांडक पर्यन्त जानना चाहिये ।
जितने काल आगे जाकर विवक्षित समय में होने वाले परिणामों की अनुकृष्टि विच्छिन्न हो जाती है, उसे निर्वर्गणा काण्डक कहा है।
अभिवृत्तिकरण के विषय में यह बात ज्ञातव्य है, “अणियहिकरणे समए समए एक्केक्कपरिणामट्ठाणाणि अर्णतगुणाणि च" अनिवृत्तिकरण के काल में प्रत्येक समय में एक एक ही परिणाम स्थान होते हैं । वे परिणाम उत्तरोत्तर अनंतगुणित हैं । (१७१४}
नेमिचन्द्र आचार्य ने लिखा है कि जिस प्रकार संस्थान आदि में भिन्नता पाई जाती है, उस प्रकार एक समय के भावों में
(१) अनुत्कर्षणमनुत्कृष्टिरन्योन्येन समानत्वानुचिंतनमित्यनर्थान्तरम् (१७०८)