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________________ (. १३१ ) अंतोमुत्तमेत्तो तत्कालो होदि तत्थ परिणामा ! लोगाणमसंखमिदा उवरुवरि सरिसबडि ढगया ।। ४९ ॥ इसका समय अंतर्मुहूर्त प्रमाण है। उसमें असंख्यात लोक प्रमाण परिणाम होते हैं। वे आगे मागे ममान वृद्धि को प्राप्त होते हैं। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी म्हारा इस अधःप्रवृत्तकरण के काल के संख्यातवें भाग प्रमाण अपूर्व करण का काल है। अपूर्वकरण के काल के मुख्यातवें भाग प्रमाण अनिवृत्तिकरण का काल है। तीनों का काल मिलने पर अतर्मुहूर्त ही होता है। अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में जघन्य विशुद्धि सबसे अल्प है। द्वितीय समय में वह विशुद्धि पूर्व से अनंतगुणी है। यह क्रम अन्तमुहूर्त पर्यन्त चलता है । इसके अनंतर प्रथम समय में उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणी है । जिस समय में जघन्य विशुद्धि समास होतो है, उसके उपरिम समय में अर्थात् प्रथम निवर्गणाकाण्इक के अंतिम समय के आगे के समय में जघन्य विशुद्धि अनंतगुणी होती है। प्रथम कांडक की उत्कृष्ट विशुद्धि से द्वितीय समय को उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणी है । इस प्रकार यह क्रम निर्माणाकांडक मात्र अंतमुहूतं काल प्रमाण अधःकरण के अंतिम समय पर्यन्त चलता है । इसके पश्चात् अंतमुहर्तकाल अपसरण करके जिस समय में उत्कृष्ट विशुद्धि समाप्त होती है, उससे अर्थात् द्विच रम निर्वर्गणा कांडक के अंतिम समय से उपरिम समय में उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणी होती है । इस प्रकार से यह उत्कृष्ट विशुद्धि का क्रम अधः करण के अंतिम समय पर्यन्त ले जाना चाहिए । यह अधःप्रवृत्त. करण का स्वरूप है। __ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती अपूर्वकरण के विषय में कहते हैं।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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