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________________ ( १८१ ) संक्षेप में यह कथन ज्ञातव्य है कि श्रधः करण, अपूर्वं करण तथा अनिवृत्तिकरण रुप करणत्रिक के द्वारा मोह की इक्कीस प्रकृतियों के क्षय का उद्योग होता है । प्रत्रः प्रवृत्तकरण में प्रथम क्षण में पाए जाने वाले परिणाम दूसरे क्षण में भी होते हैं तथा इसी दूसरे क्षण में पूर्व परिणामों में भिन्न और भी परिणाम होते हैं । इसी प्रकार के परिणाम अंतिम समय तक होने से इसका अधःप्रवृत्तकरण नाम सार्थक है । पूर्वकरण में प्रत्येक क्षण में अपूर्व ही अपूर्व परिणाम होते हैं । इससे इसका श्रपूर्वकरण नाम सायंक है । अनिवृत्तिकरण में भिन्नता नहीं होती। इसके प्रत्येक क्षण में रहने वाले सभी जीव परिणामों की अपेक्षा समान ही होते हैं, इससे इसका अनिवृतिकण बाबा जी महाराज अधःकरण में रहनेवाला संयमी स्थितिबंध - अनुभागबंध को घटाता है। वहां स्थितिघातादि का उपक्रम नहीं होता है । अपूर्वकरण में यह विशेषता है कि इस करणवाला जीव गुणश्रेणी के द्वारा स्थितिबंध तथा श्रनुभागबंध का संक्रमण मोर निर्जरा करता हुआ उन दोनों के अग्रभाग को नष्ट कर देता है । अनिवृत्तिकरण वाला स्त्यानगृद्धि, निद्रा निद्रा, प्रचलाप्रचला, नरकगति द्विक, तियंचगति द्विक, एकेन्द्रियादि चार जाति, प्रताप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म तथा साधारण इन सोलह प्रकृतियों का एक प्रहार से क्षय करता है । तदनंतर वह आठ मध्यम कषायों का विनाश करता है | पश्चात् कुछ अंतर लेकर वेद त्रय, हास्य रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, संज्वलन क्रोध, मान तथा माया का क्षय करता है । फिर वह सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान को प्राप्त करके सूक्ष्म लोभ का क्षय करता है । क्षीणकषाय नामके
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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