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सिद्धान्वव्याख्यातुर्यति वृषभाचार्यस्य"-कषाय प्रामृत की रचना गुमधर
आचार्य ने की है। उसके व्याख्या चूर्सिभूत्रकार यतिवृषभ भाचार्य हैं, यह बात स्पष्ट है। महाकर्म प्रकृति प्राभूतरूप प्रथम सिद्धान्त पंथ के कर्ता भूतबलि आचार्य के मत से पूर्वोक्त नियम नहीं है। अन्य कषायों का भी उदय प्रथम क्षण में हो सकता है। इस प्रकार दो परंपराएँ हैं । नेमिचंद सिद्धान्त चक्रवर्ती कहते हैं :णारय-तिरिक्ख-जमादाईस:
उ पद्रा विहिसागर जी महाराज कोहो माया माणो लोखुदो अणियमो वापि ॥२८॥गो.जी।
नारफ, तिच, मनुष्य तथा देवगति में उत्पन्न होने के प्रथमकाल क्रमशः कोध, माया, मान ५ था लोभ का उदय होता है अथवा इसमें कोई निश्चित रूप से नियम नहीं है।
पूर्वोक्त दो परंपराधों में किसे सत्य माना जाय, किसे सत्य न माना जाय, इसका निर्णय होना असंभव है, “अस्मिन् भरतक्षेत्रे केवलि. द्वयाभावात्' कारस इस समय इस भरतक्षेत्र में केवली तथा श्रवकेवली का अमाव है उन महान शानियों का अभाव होने से इस विषय में निमय करने में आचार्य असमर्थ हैं। "पारातीयाचार्याणां सिद्धान्तद्वयकर्तृभ्यो ज्ञानातिशयवश्वाभावात्" (गो. जी. स, टीका पृ. ६१६) प्राररातीय प्राचार्यों के सिद्धान्त द्वय के रचयिता भूतबलि तथा गुणधर श्राचायों की अपेक्षा विषय ज्ञान का अभाव है। दि कोई श्राचार्य विदेह जाकर तीर्थकर के पादमूल में पहुँचे, तो यथार्थता का परिज्ञान हो सकता है। ऐसी स्थिति के अभाव में पापभीरु बाचार्यों ने दोनों उपदेशों को समादरसीय स्वीकार किया है।
70 ये क्रोध, मान, माया तथा लोभ पाय स्व को, पर को तथा
समय को बंधन, बाधन तथा असंयम के कारण होते हैं। जीवकाण्ड में कहा है :
अप्प-परोभय-साधण-बंधासंजम-णिमित्त कोहादी । बेसि णस्थि कसाया अमला अकसाइणो जीवा ॥२८॥
अपने को, पर को, तथा दोनों को बंधन, बाधा, असंयम के कारसभूत क्रोधादि कषाय तथा वेदादि नो कषाय है। ये कषाय जिनके नहीं हैं, वे मल रहित अकषाय जीव हैं।