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________________ दो गाथात्रों में लोभ के बीस नाम इस प्रकार कहे हैं : कामो राग णिदाणी छंदो य सुदो य पेज्जदोसो य । गेहाणुराग आसा इच्छा मुच्छा य गिद्धी य 16|| सामद पत्थण लालस अविरदि तराहा य विज्ज जिब्भाय । लोहस्स य णामधेज्जा वीस एट्ठिया मणिदा ॥६॥ काम, राग, निदान, छंद, स्वता, प्रेय, द्वेष, स्नेह, अनुराग, भाशा, इच्छा, मूला, गृद्धि, शाश्वत या साशता, प्रार्थना, लालसा, अविरति, तृष्णा, विद्या तथा जिह्वा ये लोभ के एकार्थवाची बीस नाम हैं। मार्गदर्शक लोनावावविशुधिरितगशाला कोराक ऐसी शंका के समाधानार्थ जयधवला टीका में जिनसेन प्राचार्य कहते हैं. "विद्या जिस प्रकार दुराराध्य अर्थात् कष्टपूर्वक श्राराध्य होती है, उसी प्रकार लोभ भी है। कारण परिग्रह के उपार्जन, रक्षणादि कार्य में जीव को महान कष्ट उठाने पड़ते हैं । “विग्रेच विद्या । क इहोपमार्थः १ दुराराध्यत्वम्।" __ लोभ का पर्यायवाची जीभ कहने का क्या काररस है ? जिस प्रकार जीभ कभी भी तुम नहीं होती, उसी प्रकार लोभ की भी तृप्ति नहीं होती है। "जिव्हेव जिव्हेत्यसंतोष-साधर्म्यमाश्रित्य लोभ पर्यायत्वं वक्तव्यम्' (इन क्रोधादि के पर्यायवाची नामों पर विशेष प्रकाश इस ग्रंथ में पृष्ठ ११७ से १२१ पर्यन्त डाला गया है।) दो परंपरा-नारक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देव पर्याय में उत्पन्न जीव के प्रथम समय में क्रमशः क्रोध, माया, मान तथा लोम का उदय होता है। नारकी के उत्पत्ति के प्रथम समय में क्रोध, पशु के माया, मनुष्य के अभिमान तथा देव के लोभ कषाय की उत्पत्ति होती है। यह कषायाभूत द्वितीय सिद्धान्तग्रंथ के व्याख्याता यतिवृषभ बाचाय का अभिप्राय है। ५० टोडरमल जी ने लिखा है "सो असा नियम कषाय प्राभृत दुसरा सिद्धान्त का कर्ता यतिवृषभ नामा आचार्य ताके अभिप्रायकार जामना" (पृष्ठ ६१६-संस्कृत बड़ी टीका का अनुवाद)। 'कषायमाभृत-द्वितीय * साठ हजार रलोक प्रमाण जयधवला टीका की बीस हजार श्लोक प्रमास रचना वीरसेन स्वामी कृत है। शेष रचना महाकवि जिनसेन की कृति है, ऐसा इंद्रिनंदि अशावतार में कहा है। इस कारण उपरोक्त टीका के इस भाग को हमने जिनसेन स्वामी द्वारा कथित लिखा है।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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