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________________ ( २८ ) जनका यह स्पष्टीकरण भी ध्यान देने योग्य है : उपभोगमयो जीवो मुज्झदि रज्जाद या पदुस्सेदि । पप्पा बियिधे विसये जो हि पुणो तहि संबंधी ॥१७॥ " मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी म्हारा यह जीव उपयोग अर्थात् ज्ञान दर्शन स्वरूप है । यह विविध परिच्छेद्य अर्थात् ज्ञेय रूप पदार्थों के संपर्क को प्राप्त करके मोह, राग तथा द्वेष रूप भायों को उत्पन्न करता है, इस कारण उसके कर्मों का बंध होता है। जीव के भावों के अनुसार द्रव्य पंध होता है सथा द्रव्य बंध द्वारा भाव यंध होता है। प्रवचनसार टीका में अमृवचन्द्रसूरि ने इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है कि यह आत्मा लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेशी है। शरीर, पाणी तथा मनो-वर्गणाओं के अवलवन से उस आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्दन अर्थात् सर्वागीण रूप से कंपन होता है। उस समय कर्म रुप पुद्गल काय में स्वयमेव परिस्पंदन उत्पन्न होता है और वे फर्म पुद्गल आत्मा के प्रदेशों में प्रवेश को प्राप्त होते हैं। जीव के राग, द्वेष स्था मोह होने पर बंध को भी प्रा हुमा करते हैं । "ततो अबधार्यते द्रव्यबधस्य मावबंधो हेतु:"-अतः यह निश्चय किया जाता है, कि रागादि भावयंध से द्रव्यबंध होता है। द्रव्य कर्मबंध-भाव कर्मबंध-गोग्मटसार धर्मकार में "पोग्गलपिहो व्य'-पुद्गल के पिंड को द्रव्यकर्म कहा है । "तस्सची भावकम तु-उसमें रागादि उत्पन्न करने की शक्ति भाव फर्म है। अध्यात्म दृष्टि से जीय के प्रदेशों के सकंप होना भावधर्म है। जीव के प्रदेशों के कंपन द्वार। पुद्गल फों का जीव प्रदेशों में आगमन होता है। पश्चात राग, द्वेष, मोहवश मंध होता है। ____ आचार्य नेमिचन्द्र ने द्रथ्य यथा भावबंध के विषय में इस प्रकार यन्झदि सम्म जेण दुचंदणभावण भावबंधी सो । कम्मादपदेसाणं अगणोरण पवेसणं दरो iद्र०सं० ३२॥ चैतन्य की जिस रागादि रूप परिणति के द्वार। कर्मों का अध होता है, उसे भावबंध कहते हैं । कर्मों और आत्मा का परस्पर में प्रवेश हो जाना द्रव्य बंध है। प्रवचनसार गाथा १७० को टीका।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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