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________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुमिहासागर औ महाराज शुद्ध जीय में रागादि विकारों का असद्भाव है। शुद्ध पुद्गल में भी क्रोधादि का प्रभाव अनुभयगोचर है। उन पुद्गलों के साथ जोव का संबंध होने पर बंध रूप एक नवीन अवस्था अनुभवगोचर होती है। | उदाहरणार्थ हल्दी और धुना के सम्मिश्रण द्वारा जो विशेष लालिमा की उत्पत्ति होती है, वह दोनों की संयुक्त कृति है, जिसमें हल्दी ने पीलेपन का परित्याग किया है तथा चूना ने भी अपनी धवलता त्यागी है। दोनों के स्वगुणों की विकृति के परिणाम स्वरूप लालिमा नयनगोचर होती है। कहा भी है: हरदी ने जरदी तजी चूना तज्यो सफेद । दोऊ मिल एकहि भए, रधो न काह भेद ।। पंचाध्यायो में कहा है : घंघः परगुणाकारा क्रिया स्यात् पारिणामिकी । तस्यां सत्यापशुद्धत्व तद्वयोः स्वगुणच्युतिः ॥२॥१३०॥ अन्य के गुणों के प्राकार रूप परिणमन होना बंध है । इस परिसमन के होने पर अशुद्धता पाती है। उस काल में यंधन को प्राप्त होन वालों के स्वयं के गुणों की च्युति रूप विपरिमन होता है। न बंध एक का नहीं होता है । 'बंधोऽयं द्वन्दुजः स्मृतः यह बंध दो से उत्पन्न होता है । उस बंध की दशा में बंध को प्राप्त द्रव्य अपनी स्वतंत्रता स विरहित हो परस्पर अधीनसा को प्राप्त होते हैं। माशाधरजी का यह कथन विशेष ध्यान देने योग्य है। सन्धो अध्यन्ते परिणविविशेषेण विवशीक्रिया कर्माणि प्रकृतिविदुषो येन यदि था। स सत्कर्माम्नाती नयति पुरुषं यत् स्ववशताम् । प्रदेशानां यो वा स भवति मिथः श्लेप उभयोः। अनगारधर्मामृत २२३८॥ जिस परिणति विशेष से कर्म अर्थात् कर्मस्व पर्याय प्राप्त पुद्गलद्रव्य कषिपाक-अनुभव करने वाले जीष के द्वारा परवंत्र बनाये जाते हैं योगद्वार से प्रविष्ट झकर पुण्प-पापरूप परिए मन करके भोग्य रूप से सम्बद्ध किये जाते हैं, वह ध है अथवा लो कर्म जीव को अपने परा में
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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