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________________ +10 पासव तथा बंध के पौर्यापर्य के विषय में अनगारधर्मामृत का यह स्पष्टीकर रा ध्यान देने योग्य है-"प्रथमक्ष कर्मस्कंधानागमनमात्रयः, श्रागमनानन्तरं द्वितीयक्षणायौ जीवप्रदेशेष्ववस्थानं अन्ध इति भेदः।" (पृ. ११२)-प्रथम इसमें कर्मस्कन्धों का आगमन-बानव होता है। श्रागमन के पश्चात् द्वितीय क्षम के श्रादि में कर्मवर्गणाओं की जीव के प्रदेशों में जो अस्थिति होती है, वह बंध कहा गया है। इस प्रकार काल की अपेक्षा उनमें अन्तर है। शंका-योग की प्रधानता से आकर्षित किये गए. तथा कपायादि की प्रधानता से श्रात्मा से सम्बन्धित कमे किस भाति जगत की अन्त विचित्रताओं को उत्पन्न करने में समर्थ होते है ? कोई एकेन्द्रिय है, कोई दो इंद्रिय है, बादि चौरासी लाख योनियों में जीव कर्मवश अनंत वादि धारण करता है । यह परिवर्तन किस प्रकार संपन्न होता है ? // समाधान ..मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सविहिासागर जी महाराज पम समाधान हेत कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं जा पुगिसणाहारो गहिनी परिणाम सो अणेयविहं । मंस-चमा-हिरादीभावे उयररिंगमंजुत्तो ॥ १७६ ।। सह णाणिस्म दु पुध्वं बद्धा पच्चया बहुवियप्यं । बज्मते कम्म ने णय-परिहीणा उ ने जीवा ॥१०॥ममयसार जैसे पुरुष के द्वारा खाया गया भोजन जठराग्नि के निमिन वश मांस, ची, रुधिर श्रादि पर्यायों के रूप परिणमन करता है, उसो प्रकार ज्ञानवान जीवके पूर्वबद्ध दुव्यास्रय बहुत भेदयुक्त को को बांधने है । वे जीव परमार्थदृष्टि से रहित हैं। आचार्य पूज्यपाद तथा अकलंक देव ने भी पूर्वोक्त उदाहरण्म द्वारा सभाधान प्रदान किया है। सर्वार्थ सिद्धि ( ८२५२२ ) में लिखा है. “जठराग्न्य-नुरूपाहार--ग्रहणवनीव-भत मध्यम-कषायाशयानुरूप-स्थित्यनुभव-विशेष-प्रतिपत्यर्थम"-- जिस प्रकार घाई गई वस्तु प्रत्येक के भामाशय में पहुँचकर नाना रूपों में परिमत होती है, उसी प्रकार योग के द्वारा आकर्षित किये गया कम प्रात्मा के साथ संश्लेष रूप होने पर अनंत प्रकार से परिमान को प्राप्त होता है । इस परिणमन की विविधता में कारस रागादि भावों की दीवाधिकता है।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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