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पुण्य-पाप मीमांसा -जीव के भावों में विशुद्धवा आने पर जो कार्मास वर्गणाएं आती हैं, उनकी पुण्य रूपमे परिणति होती है तथा संलश परिसामों के होने पर कार्मास वर्गपाची का पापरूप के परिणमन होता है। संसार के कारण रूप होने से पुण्य तथा पाप समान माने गए हैं; किन्तु इस विषय में एकान्तवाद नहीं है । अमृतचन्द्रसूरि ने तत्वार्थसार
में कहा है:मार्गदर्शक :- अलवसुविसा जीवाशपुण्य-पापयोः ।
हेतू शुभाशुमौ मावी कार्ये चैत्र शुभाशुभे ॥१०३॥ श्रास्त्रवतत्त्व - पुण्य और पाप में साधन और फल की अपेक्षा भिन्नता है । पुण्य का कारण कषायों की मन्दसा है पाप का कारण कषायों की तीत्रता है। पुण्य का कारण शुभ परिणाम है: पाप का कारण अशुभ परिणाम है । पुण्य का फल सुख तथा सुखदायी साधन-सामग्री की प्राप्ति है । पाप का फा दुःख तथा दुःखप्रद मामयों की प्राप्ति है। कारण की भिन्नता होने पर कार्य में भेद स्वीकार करना न्यायशास्त्र तथा अनुभव सम्मत बात है। पुण्य की प्रकाश से तथा पाप की अंधकार से नुलना की जाती है।
हिसा, झूठ. चोरी, कुशील तथा तीन तृधमा द्वारा पाप का बंध होता है । इसके परिणाम म्प यह जीव दीन, दुःखी मनुष्य, तिर्यच तथा तथा भारकी होकर महस्रों प्रकार की व्यथाओं से पीड़ित होसे हैं। ममतभद्र स्वामी ने हिसादि को "पाप-प्रसालिका" पाप की नाली कहा | है। गृहस्थ का मन भोगों से पूर्णतया विरक्त नहीं हो पाता है. याप वह सम्यक्त्व के प्रकाश में तथा जिनेन्द्र की श्राझा के द्वारा भोगापभोगों की निस्सारता को बौद्धिक स्तर पर स्वीकार करता है । इस प्रकार की मनोदशा बाला श्रावक श्रमरों की अभिवंदना करता हुआ गधा-शक्ति विषयों के त्याग को अपनाता हुआ भोग-विजय के पश्च में प्रवृज होता है । इस आचरण द्वारा विवेकी थावक मुक्तिपथ में प्रगति करता हुआ शीघ्र ही नित्राम-रूप परम मिद्धि को प्राम करता है।
जह बंधे चिततो बंधणबद्धो ण पाव विमोक्खं ।
तहबंध चिततो जीयोवि श पावइ विमोखं ॥२६१॥ --- जैसे कोई बंधनों से बंधा पुरुप बंध का विचार मात्र करने में
धन-मुक्त नहीं होता है, उसी प्रकार बंध के बारे में केवल विचार करने वाला व्यक्ति मोक्ष नहीं पाता है । “बंधेछित्तम य जीवो संपायद