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________________ विमोक्खं"-कर्म बंधन का नाश करने वाला ही मोच पाता है । ( ०१२ गाथा ) सर्वार्थ सिद्धि में विद्यमान महान तत्त्वज्ञ देव तेंसीस सागर पर्यन्त उच्चकोटि का तत्वानुक्तिनादि कार्य करते हैं. फिर भी वे शीघ्र मोक्ष नहीं जा पाते, क्योंकि वहीं विशेष कमौत्ययश पार तथा पुरय क्षय के कारण . तप का परिपालन संभव नहीं है। इसी कारण वे विवेंकी देवराज यह भावना किया करते हैं- मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविद्यासागर जी महाराज 'कदा नु खलु मानुष्यं प्राप्स्यामि स्थिति-संचये ।। ....... : देवं पर्याय की स्थिति पूर्ण होने पर मैं कर मनुष्य पर्याय को धारण करूँगा ? थे ये भी विचारते रहते है विषयारि परित्यज्य स्थापयित्वा वशे मनः । . . नीत्वा कर्म प्रयास्यामि तपमा गतिमाहतीम् ।। पद्यपुराण पर्व ११३ . ....उस मनुष्य पर्याय में विर्षयरूपी शत्रुओं का त्याग करूंगा और मन्, को वश में करके कर्मों का क्षय करके तप द्वारा महन्त की पदवी को प्राप्त कगा। ! : . परिपालनीय मध्यम पध-लो. पुरुष अमरस अवस्था के • योग्य उमच ममोयल तथा विशुद्धता को नहीं प्राप्त कर शता, बह जिनेन्द्र भक्ति आनि सत्कार्यों में संलग्न हो धर्म ध्यान का आश्रय लेता है। जिनेन्द्र भगवान की भक्ति द्वारा संसार के श्रेष्ठ सुख तथा मोक्ष का महान सुन भी प्राम- होले हैं। धन धान्य, तक्षा वैभव विभूति में जिस मन लगा हुआ है, स महापुरासकार के थे शब्द ध्यान देने योग्य ही नहीं, तत्काल परिपालन के योग्य भी है :- . . . . . . . --0 .... ..... पुण्यं जिनेन्द्र-परिपूजनमाध्यमाद्यम् । पुण्यं सुपात्र-गव-दान-समुत्थमन्यन् । पुण्यं व्रतानुचरणा-दुपवास-योगात्। . पुण्यार्थिनामिति चतुष्टयमर्जनीयम् ॥२८॥२१६॥ ॥ - जिनेन्द्र भगवान की पूजा से उत्पन पुण्य प्रथम है। सुपात्र को दान देने से उत्पन्न. पुण्य दूसरा है । व्रतों के पालन द्वारा प्राप्त पुण्य तीसग -है। उपवास करने से जपत्र पुण्य पीथा है। इस प्रकार पुण्यार्थी को पूजा .: दान, व्रत, तथा उपवास द्वारा पुण्य का उपार्जन करना चाहिये ।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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