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अपस्व-परिपाचन मुदीरणा इति बचनात्” उदोरणा का स्वरुप यह है, कि जो उदय को अपरिप्राप्त कर्मों को उपायविशेष (तपश्चरणादि) द्वारा परिपक्व करना-उदयावस्था को प्राप्त करना उदीरणा है। अपक्व कर्मों का परिपाचन करना उदीरणा है, ऐसा कथन है । १ कहा भी है:
कालेण उवायेणय पच्चंति जहा वणफ्फइफलाई। तह कालेण तवेण य पच्चंति कयाई कम्माई ॥
जैसे अपना समय आने पर यथाकाल अथवा पायाद्वारा पहाराज वनस्पति आदि फल पकते हैं, उसी प्रकार किए गए कर्म भी यथा काल से अथवा तपश्चर्या के द्वारा परिपाक अवस्था को प्राप्त होते हैं।
शंका-~-कधं पुण उदयोदोरणाणं वेदगबबएसो ? उदय और उदीरणा को वेदक व्यपदेश क्यों किया गया है ?
समाधान—“ण, वेदिज्जमाणत्व-सामण्णावेक्वाये दोण्हिमेदेसि तब्बवएससिद्धीए विरोहाभावादो"- ऐसा नहीं है। वेद्यमानपना को सामान्य अपेक्षा से उदय, उदीरणा दोनों को वेदक व्यपदेश करने में विरोध का अभाव है । (१३४४)
क्षेत्र पद से नरकादि क्षेत्र, भव पद से एकेन्द्रियादि भव, कालपद से शिशिर, हेमन्त आदिकाल अथवा यौवन, बुढ़ापा आदि कालजनित पर्यायों का, पुद्गल शब्द से गंध, तांबूल, वस्त्र, प्राभूषणादि इष्ट तथा अनिष्ट पदार्थों का ग्रहण करना चाहिए । को कदमाए हिदीए पवेसगो को व के य अणुभागे । सांतर-णिरंतर वा कदि वा समया दु बोहव्वा ॥६॥
१ खेत्त भव-काल-पोग्गले समस्सियूण जो ट्ठिदिविवागो उदयक्खनो च सो जहाकममुदीरणा उदयो च भणयि त्ति। (१३४६)