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________________ दिर्शक:-'आचावासावाधार ( २१४ ) * इन माना प्रकार के कर्मों के द्वारा जिन कर्मों का बंध होता है, उनका अस्तित्व कृष्टिवेदक के स्यात् नहीं होता है। इससे उन्हें भाज्य कहा गया है। “सर्व निर्ग्रन्थ लिंग को छोड़कर अन्य लिंग में पूर्वबद्ध कर्म क्षपक के भजनीय है। "क्षेत्र में अधोलोक तथा उर्वलोक में बांधे हुए कर्म स्यात् पाए जाते हैं । तिर्यग्लोक में बद्धकर्म नियम से पाये जाते हैं । अधोलोक और उर्वलोक में संचित कर्म शुद्ध नहीं रहता है। तिर्यग्लोक में सम्मिश्रित कर्म पाया जाता है। तिर्यग्लोक का संचय शुद्ध भी पाथा जाता है। अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी में संचित शुद्ध कर्म नहीं होता है-"प्रोसपिणोए जसपिशोपासामाजि । ( २११७) एदाणि पुव्वबद्धाणि होति सव्वेसु द्विदिविसेसेसु । सव्वेसु चाणुभागेसु णियमा सवकिट्टीसु ॥१६३॥ - ये पूर्वबद्ध (अभाज्य स्वरूप ) कर्म सर्व स्थिति विशेषों में, सर्व अनुभागों में तथा सर्व कृष्टियों में नियम से होते हैं । विशेप - "जाणि अभाज्जाणि पुत्वबद्धाणि ताणि णियमा सब्वेसु ट्ठिदिविसेसेसु णियमा सब्बासु किट्टीसु' (पृ. २११८ ) जो अभाज्य रुप पूर्वबद्ध कर्म हैं, वे नियम से सर्व स्थिति विशेषों में तथा नियम से सर्व कृष्टियों में पाये जाते हैं । एगसमयपबद्धा पुरण अच्छुत्ता केत्तिगा कहि द्विदीसु । भववद्धा अच्छुत्ता द्विदीसु कहि केत्तिया होंति ॥१६४॥ एक समय में प्रबद्ध कितने कर्म प्रदेश किन-किन स्थितियों में अछूते ( उदय स्थिति को अप्राप्त ) रहते हैं ? इस प्रकार कितने भवबद्ध कर्म प्रदेश किन-किन स्थितियों में असंक्ष ब्ध रहते हैं ?
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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