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पाहिलक) आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज
शंका-प्रेय और द्वेष ( दोष ) परस्पर विरोधी प्रथं युक्त होते हुए किस प्रकार लोभ के पर्यायवाची हैं ?
“ममाधान-परिग्रह की अभिलाषा पाल्हाद भाव का हेतु है, इससे बह प्रेय है किन्तु वह संसार के प्रवर्धन का कारण भी है, इससे उसमें 'दोस' ( दोष ) पना भी है । 'कथ पुनरस्य प्रेयन्वे सति दोषत्वं विप्रतिषेधादिति चेन्न पाल्हादनमात्रहेतुत्वापेक्षया परिग्रहाभिलाषस्य प्रेयत्वे सत्यपि संसारप्रवर्धनकारण वादोषतोपपत्तो।
1 इष्ट पदार्थ में सानुराग चित्तवृत्ति स्नेह है। "एवमनुरागोपि व्याख्येयः" इसी प्रकार अनुराग को भी व्याख्या करना चाहिये। अविद्यमान पदार्थ की आकांक्षा करना प्राशा है, "अविद्यमानस्यार्थस्याशासनमाशा" | बाह्य तथा अन्तरंग परिग्रह की अभिलाषा इच्छा है। तीव्रतर परिग्रह की प्रासक्ति को मूर्छा कहा है। अधिक तृष्णा गृद्धि है।
Vाशा युक्त होना साशता अथवा सस्पृहसा, सतृष्णपना है । 'सहाशया वर्तते इति साशस्तस्य भावः साशता सस्पृहता सताणता' अथवा सदा विद्यमान रहने वाला होने से लोभ को 'शाश्वत' कहा है, "शश्वद्रभवः शाश्वतो लोभः"।
शंका--लोभ को शाश्वत क्यों कहा है ? "कथं पुनस्य शाश्वतिकत्वमिति ?"
- समाधान-लोभ परिग्रह की प्राप्ति के पूर्व में तथा पश्चात् सर्वदा पाया जाने से शाश्वत है--"परिग्रहोपादाना प्राक पश्चाच्च सर्वकालमनपाया शाश्वतो लोभः" । धन की उपलिामा प्रार्थना है . "प्रकर्षेण अर्थन प्रार्थना धनोपलिप्सा" । गृद्धता को लालसा कहते हैं। विरति अर्थात् त्याग का न होना अविरति है । असंयम भाव को अविरति कहा है । विषयों को पिपासा तृष्णा है; "तृष्णा विषय