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________________ । १ केवली भगवान अभिसंधि के बिना भी लोक सुखकारी विहार (तित्थयरस्स विहारो लोयसुहो) करते हैं। जैसे कल्पवृक्ष स्वभाव से दूसरे को इष्ट पदार्थ प्रदान करने की शक्तियुक्त रहता है अथवा जैसे दीपक कपावश नहीं किन्नु स्वभाववश दूसरे पदार्थों का तथा स्वयं का अंधकार दूर करता है. ऐसा ही कार्य भगवान के इच्छा के क्षय होने पर भी स्वभाव से होता है । २ योग की अवित्यशक्ति 'के प्रभाव से प्रभु भूमि का स्पर्श न कर गगनतल में बिना प्रयत्न विशेष के विहार करते हैं । उस समय भक्ति प्रेरित सुरगण चरणों के नीचे सुवर्ण कमलों की रचना करते जाते हैं। । केवली भगवान का विार किंचित उन पूर्वकोटि वर्ष कालमा पर्यन्त होता है। १ अभिसंधिविरहेपि कल्पतरुवदस्य परार्थसंपादन-सामोपपत्तेः। प्रदीपयद्वा । न वै प्रदीपः कपालुस्तथात्मानं परं बा तमसो निबर्तयति, किन्तु तत्स्वाभाव्यादेवेति न किंचित् व्याहन्यते । २ स पुनरस्य विहारातिशयो भूमिमम्पृशत एवं गगनतले भक्तिप्रेरितामरगणविनिर्मितेषु कनकाम्बुजेषु प्रयत्न विशेषमन्तरेणापि स्वमाहात्म्यातिशयात्प्रवर्तत इति प्रत्येतव्यं । योगिशक्तीनामचिन्त्यत्वादिति । (२२७२)
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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