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________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ( २५ ) अमृतचन्द्रसूरि का कथन है जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमंते पुद्गलाः कर्मभावेन ॥ पु. सि. १२ ॥ -- जीव के रागादि भावों का निमित्त पाकर पुद्गज्ञ स्वयमेव कर्मरूप में परिणमन करते है । जैसे सूर्य की किरणों का मेघ के अवलंबन से इंद्रधनुपादि रूप से परिणमन हो जाता है; इसी प्रकार स्वयं अपने चैतन्यमय भाव से परिण्मन शील जीव के रागादिरूप परिणमन में पौद्गलिक कर्म निमित्त पड़ा करता है। यदि जीव और पुद्गल में निमित्त भाव के स्थान में उपादान उपादेयत्व हो जावे. तो जीव द्रव्य का अभाव होगा अथवा पुद्गल द्रव्य का अभाव हो जायगा । भिन्न क्रयों में उपादान- उपादेयता नहीं पाई जाती। प्रवचनसार की टीका में अमृतचंद धाचार्य ने कहा है, पुद्गलस्कन्ध कर्मत्व परिणमन शक्ति के योग से स्वयमेव कर्मभाव से परिव होते हैं। इसमें जीव के रागादिभाव बहिरंग साधन रूप से अवलम्बन होते हैं । देह - देही - भेद - - कुंदकुंद स्वामी कहते हैं, शरीर जीव से पूर्णतया भिन्न है— ओरालियो य देहो देहो वेउच्चियो य तेजयिश्रो । आहारय कम्मयो पोलदन्यप्पा मध्ये प्र. सा. १७१॥ ॥ औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, आहारक तथा कार्माण शरीर ये सभी पुद्गलद्रव्य रूप हैं। "ततो भवधार्यते न शरीरं पुरुषोस्ति" इससे यह निश्चय किया जाता है, कि शरीर पुरुष रूप नहीं है । ऐसी स्थिति में यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है, क्रि जोवका असाधारण लक्षण क्या है ? अरम- मरूत्र -मगंधं श्रव्त्रसं चेदणागुण-ममद | जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिदुठाणं ॥ १७२ जीव रस, रूप, गंध रहित है; अव्यक्त है। चैतन्य गुण युक्त है; शब्द रहित है; बाह्य लिंग (चिह्न) द्वारा भमाझ है तथा श्रनिर्दिष्ट संस्थान वाला है।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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