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________________ ( २६ ) चूडामणि में कहा है : एवं मिश्रस्वभावोयं देही स्वत्वेन देहकम् | सुरुपते पुनरज्ञानादतो देहेन बध्यते ।। ७ । १६॥ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज इस देह में स्थित आत्मा उस शरीर से भिन्न स्वभाव वाला है । वह देही अज्ञानवश देव को अपना मानता है. इस कारण वह शरीर से बंधन को प्राप्त होता है । शंका- पुद्गल स्कन्धों को फर्म कहा जाता है; जीव के भावो को कर्म कहने का क्या हेतु है ? उतर - आदा कम्ममलिमको परिणामं लहड़ कम्मसंजुत्त । तत्तो सिलिसदि कामं सदा धम्मं तु परिणामो ॥ कर्म के कारण मलिन अवस्था को प्राप्त आत्मा कर्ममयुत परिणमन को प्राप्त करता है। इससे कर्मों का संबंध होता है । अतः रागादि परिणाम को कर्म कहते हैं । कर्मबंध की प्रक्रिया - रागादि भावों से होने वाली कर्मबंध को प्रक्रिया को वादीभसिंह सूरि इस प्रकार स्पष्ट करते हैं :-- संसृतो कर्म रागार्थी स्वतः कायान्तरं ततः । इंद्रियाणीन्द्रियद्वारा रागाद्याश्रन क पुनः 11च.चू. ११४० ॥ गादिभावों से संसार में कर्म बंधते हैं। उस कर्म द्वारा भवीन शरीर का निर्माण होता है। उसमे इंद्रियों की उत्पत्ति होती है। इंद्रियों विषयों का उपभोग होने पर द्वेषादि परिणाम होते हैं। इस प्रकार बंध का चक्र चला करता है। पंचास्तिकाय का यह कथन महत्वपूर्ण है :-- जो खलु संसारत्थो जीव ततो दु होदि परिणागो । परिणामादो कम्मा हम्मादो होदि गदिसु गदी ॥ १२८ ॥ मदिमधिगदस्त देहो देहादो इंदियाणि जायंत । तेंहि तु विसयग्गहणं ततो रागों व दोसो वा ॥ १२६ ॥
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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