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________________ ( १४८ ) महापुराणकार जिनसेन स्वामी ने सम्यग्दर्शन की उपपत्ति में बाह्य तथा अन्तरंग ग़ामग्री को आवश्यक कहा है: देशना-कालनन्ध्पादि-वायकरणसम्पदि । अन्त:-करणसामग्रयां भव्यात्मा स्याइ विशुद्धपक ॥११६.६।। जब देशनास्मसिधाकानीमायादि मारिमारजी महाराजरणति रुप अन्तरंग सामग्री को प्राप्ति होती है, तब भव्यात्मा विशुद्ध सम्यक्त्व को धारण करता है । इश प्रसंग में यह बात विशेष ध्यान देने योय है, कि क्षायिक सम्यक व की उपलब्धि हुए बिना क्षपक श्रेणी पर आरोहण नहीं हो सकता है । मोन प्राप्ति के लिए क्षायिक सम्यक्त्व की प्रामि में केवली के पादमूल का अाश्रय रुप निमित्त कारण आवश्यक माना गया है । इस निमित्त कारण का सुयोग न मिलने पर क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति असंभव है। यदि दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक जीव बद्धायक है, तो वह दर्शनमोहकी क्षपणा का कार्य प्रारंभ करने के उपरांत कृतकृत्य वेदक-काल के भीतर ही मरण को प्राप्त करता है तथा चारों ही गतियों में दर्शनमोह क्षपण की निष्ठापना करता है। वह प्रथम नरक में, भोगभूमियों पुरुषवेदी तिर्यंचों में, भोगभूमियां पुरुषों अथवा कल्पवासी देवों में उत्पन्न होकर दर्शनमोह क्षपणा को निष्ठापना करता है। मिच्छत्तवेदपीए कम्मे ओवहिदम्मि सम्मत्ते । खवणाए पटुवगो जहणणगो तेउलेस्साए ॥१११॥ मिथ्यात्व वंदनीय कर्म के सम्यक्त्व प्रकृति में अपवर्तित (संक्रमित) किए जाने पर जीव दर्शनमोह को क्षपणा का प्रस्थापक होता है। उसे जघन्य तेजो लेश्या में वर्तमान होना चाहिए । विशेष- दर्शनमोह की क्षपणा में तत्पर कर्मभूमिया मनुष्य मिथ्यात्व प्रकृति के सर्व द्रव्य को मिश्र प्रकृति रूप में संक्रमित
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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