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________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज करता है । मिश्र प्रकृति रुप परिणत द्रव्य को जब पूर्ण रूप से सम्यक्त्व प्रकृति रुप में संक्रमित कर देता है, तब उसे दर्शन-मोहक्षपणा का प्रस्थापक कहते हैं। अधःप्रवृत्तकरपा के प्रथम समय से ही प्रस्थापक संज्ञा प्रारंभ होती है तथा वह यहां तक प्रस्थापक कहलाता है । जवन्य तेजोलेश्या का निर्देश करने से अशुभ त्रिक लेश्याओं में दर्शनमोहकी क्षपणा का कार्य प्रारंभ नहीं होता, यह ज्ञात होता है। कृष्ण, नील तथा कापोत लेश्याका विशुद्धि के विरुद्ध स्वभाव है किण्ण-नील-काउलेस्साणं विमोहिविरुद्धसहावाणं ।" इस कारण प्रात्मबिशुद्धि पर निर्भर इस दर्शन मोहकी क्षपणा के अवसर उक्त अशुभत्रिक लेश्यानों का प्रभाव परम आवश्यक है। अंतोमुत्तमद्धं दसणमोहस्स णियमसा खवगो। खीणे देवमणुस्से सियाविणामाउगो बंधो॥ ११२ ॥ ___ वह दर्शनमोह का क्षयक अंतर्मुहूर्त पर्यन्त नियम से दर्शन मोह के क्षपणका कार्य करता है । दर्शन मोह के क्षीण हो जाने पर देवगति तथा मनुष्यगति संबंधी नाम कर्म की प्रकृतियों का तथा पायुकर्मका स्यात् बंधक है । __विशेष- दर्शन मोहका क्षपण करने वाला यदि मनुष्य है या तिर्यंच है, तो वह देवगति संबंध नाम कर्म तथा देवायुका बंध करता है। यदि वह जीव देव है अथवा नारकी है, तो वह मनुष्यगति संबंधी नाम कर्म तथा मनुष्यायुका बंध करता है । यदि वह चरम शरीरी मनुष्य है तो आयु का वंध नहीं करेगा तथा नामकर्म की प्रकृतियोंका, स्वयोग्य गुणस्थानों में बंधव्युच्छित्ति होने के पश्चात् पुनः बंध नहीं करेगा । यह भाव गाथा में प्रागत 'सिया' शब्द से सूचित होता है।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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