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________________ अमनिवारण-गुणधर आचार्य ने मंगल रचना न करके यह विशेष बात स्पष्ट की है, कि परमागम का अभ्यास पौद्धिक व्यायाम सदृश मनोरंजक नहीं है, किन्तु उसके द्वारा भी निर्मल उपयोग होने से कर्म निर्जरा की उपलब्धि होती है। इसका यह अर्थ नहीं है, कि जन साधारण मंगल स्मरण कार्य से विमुख हो जावे। स्वयं चतुर्ज्ञान समलफूस गौतम गोत्रीय गणधर इन्द्रभूति ने चौबीस अनुयोगद्वारों के आरंभ में मंगल किया है। यतिवृषभ स्थविर तथा गुणधर भट्टारक ने विशुद्ध नव के अभिप्राय से मंगल नहीं किया, किन्तु गौतम स्वामी ने मार्गदर्यवहार मगामी अमेजामिंद्यालायाम्हारजप्रकार अपेक्षा भेद है । शंका-भूतार्थ होने से एक निश्चय नय ही उपादेय है : व्यवहार नय अभूतार्थ होने से त्यागने योग्य है। इस व्यवहार नय का श्राश्रय श्रुतफेवली गणधर ने लिया, इसमें क्या रहस्य है ? समाधान-गौतम गणघर का कथन है, कि व्यवहार नय त्याज्य नहीं है। उसके श्राश्रय से अधिक जीवों का कल्याण होता है। (जो बहुजीवाणुहकारी क्वहारणो सो व समस्सियोति मणावहारिय गोदमथेगेण मंगल तत्व कयं (ज. ध पृ० ८ भा०१) जो व्यवहार नय बहुत जीचों का हितकारी है, उसका त्याग न कर उसका प्राश्रय लेना चाहिये, ऐसा अपने मन में निश्चयकरके गौतम स्थविर ने मंगल किया है उनके ही पथ का अनुसरण कर कुन्दकुन्ट, समतभद्र आदि महर्षियों ने व्यवहार नय का आश्रय लेकर स्वयं को तथा अनेक जीवों को कल्याण मार्ग में लगाने के हेतु शास्त्रों में मंगल रचना की हैं । इस प्रकाश में उन आत्माओं को अपनी विपरीत दृष्टि का संशोधन करना चाहिये, कि व्यवहार नय व्यर्थ है तथा वह निन्दा का ही पात्र है । वीतराग निधिकल्प समाधि रूप परिसत महा मुनि निश्चय नय का आश्रय लेकर स्वहित संपादन करते है ।(सामान्य मुनिजन भी जब निश्चय नय रूपी सुदर्शन चक्र को धारण करने में असमर्थ हैं, तब परिग्रह-पिशाध से अभिभूत इंद्रियों और विषयों का दास गृहस्थ उसके धारस की जो बातें सोचता है, यह उसका अति साहस है। वह जल में प्रतिबिंबित चन्दमा को पकड़ने की बालोचित तथा महर्षियों द्वारा समर्थित चेष्टा करता है। एकान्स पक्ष हानिप्रद है। मंगल का महत्व-व्यवहार नय की उपयोगिता को स्वीकार करते हुए जयथवला में वीरसेन स्वामी अरहंत स्मरण रूप मंगल का
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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