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श्री चंद्रप्रभु ( १४५ )
दिगबर जन ागाला
बामगांय जि. बुलडाणा परमार्थ तस्वदर्स अपशिचत श्रीविष्टसमा बी सम्यक वोपने से च्युत नहीं होता है। १ मिच्छाइट्ठी णियमा उवइटुं पवयणं ण सद्दहदि ।
सद्दहदि असम्भावं उवइटुं वा अणुवइ8 ॥१०८॥ मिथ्यादृष्टि नियम से सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान नहीं करता है किन्तु अल्पज्ञों द्वारा प्रतिपादित अथवा अप्रतिपादित असद्भाव अर्थात् वस्तु के अयथार्थ स्वरूप का श्रद्धान करता है।
विशेष-सत्य प्रवचन में अश्रद्धा तथा असत्य प्रतिपादन में श्रद्धा होने का कारण दर्शन मोहनीय कर्म का उदय है, जिससे विपरीत अभिनिवेश हो जाया करता है । "दसणमोहणीयोदय जणिद विवरीयाहिणिवेसत्तादो" (१७३५) । दर्शन मोहनीय के उदयवश यह उपदिष्ट अथवा अनुपदिष्ट कुमार्ग का श्रद्धान करता है। "उपदिष्टमनु मदिष्ट वा दुर्मागमेप दर्शनमोहोदयच्छ धाति ।"
सम्मामिच्छाइट्टी सागारो वा तहा अणागारो । अध बंजणोम्गहम्मि दु सागारो होइ बोद्धव्यो ॥ १०६॥
सम्यग्मिथ्या दृष्टि साकारोपयोगी तथा अनाका रोपयोगी होता है । व्यंजनावग्रह (. विचारपूर्वक अर्थग्रहण ) की अवस्था में साकारोपयोगी ही होता है।
विशेष- सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव साकार अर्थात् ज्ञानोपयोग तथा अनाकार उपयोग (दर्शनोपयोग) युक्त होता है। "एदेण दंमणमोहोवसामणाए पयट्टमागस्स पढमदाए जहा सागारोवजोग
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१ मिच्छाइट्ठी जोवो उवइट्ठ पबयणं ण सद्दहदि ।
सहदि असन्मावं उवइट्ट वा अणुवइट्ठ॥१८॥ गो०जी०