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णियमो एवमेत्य पत्थि णियमो" (१७३५) इससे दर्शनमोहको उपशामना में प्रवर्तमान प्रथमावस्था में नियम से साकारोपयोग
होता है, यह नियम यहां नहीं है । मार्गदर्शक व्यसनादस्यायविचारवाचिनो ग्रहणात् तदवस्थायां ज्ञानोपयोग
परिणत एव भवति, न दर्शनोपयोगपरिणत इति यावत्"-व्यंजन शब्द का भाव अर्थ का विचार है । उस अवस्था में ज्ञानोपयोग परिणत ही होता है। उस समय दर्शनोपयोग परिणत नहीं होता है।
मित्रगुणस्थानवी जीव के साकार तथा निराकार रूप उपयोगों में परस्पर परिवर्तन भी संभव है।
शंका- व्यंजनावग्रह काल में दर्शनोपयोग का क्यों निषेध किया गया है ?
समाधान- पूर्वापर विचार से शून्य सामान्यमाग्राही दर्शनोपयोग में तत्व का विचार नहीं हो सकता है । व्यंजनावग्रह में अर्थका विचार पाया जाता है, इस कारण उस अवस्था में दर्शनोपयोग का सद्भाव नहीं हो सकता ।