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________________ भाव संसार-इस संबंध में समंतभद्र स्वामी आममीमांसा में जैन दृष्टि को इस प्रकार व्यक्त करते हैं : कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबंधानुरूपतः । तरच कम स्वहेतुभ्यः जीवास्तचध्य-मुद्धिनाहही महाराज . काम, क्रोध, मोहादि की उत्पत्ति रूप जो भाव संसार है, वह | अपने-अपने कर्मों के अनुसार होता है । वह कर्म अपने कारण रागादि से उत्पन्न होता है। वे जीव शुद्धसा सथा अशुद्धता मे समन्वित होते हैं। आचार्य विद्यानंदी अष्टसहस्री में लिखते हैं-यह भावात्मक संसार अज्ञान मोह, तथा अहंकार रूप है। संसार एक स्वभाष वाले ईश्वर की कृति नहीं है. कारम् उसके कार्य सुख-दुःखादि में विचित्रता दृष्टिगोचर होती है । जिस वस्तु के कार्य में विचित्रता पाई जाती है, वह एक स्वभाव बाल कारण से उत्पन्न नहीं होती है; जैसे अनेक धान्य कुरादि रूप विचित्र कार्य अनेक शालिचीजादिक से उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार सुखदुःम्ब विशिष्ट विचित्र कार्य रूप जगत् एक स्वभाव वाले ईश्वरकृत नहीं हो सकता। अनादि संबंध का अंत क्यों ?-आत्मा और कम का संबंध अनादि से है, तब इसका अंत नहीं होना चाहिए ! ममाधान-अनादि की अनंतता के साथ व्याप्ति नहीं है। पीज वृक्ष की संतति को परपरा की अपेक्षा अनादि कहते हैं। यदि बीज को | दग्ध कर दिया जावे, तो वृक्ष की परंपरा का क्षय हो जायेगा। कर्मवीज | के नए हो जाने पर भयाकुर की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। तत्त्वार्थसार में कहा है : दग्धे बीजे यथाऽत्यन्न प्रादुर्भयति नौकुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे न प्रमेहति भनांकुरः ॥ ८॥ ७ ॥ अकलक स्वामी का कथन है, कि मारमा में पाया जाने वाला कर्ममल आत्मा के प्रतिपक्षरूप है। यह आस्मा के गुणों के विकास होने . .. . ....--.--...-- . 'संसारोयं नैकस्वमावेश्वरकृतः, तत्कार्यसुख-दुःखादि-वैचित्र्यात् । नहि कारणस्यैकरूपत्वे कार्थनानात्वं युक्तम् , शालिनीजवन् ॥ अष्टशप्ती
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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