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________________ समान बाहरी वस्त्र आदि परिग्रह का त्याग आवश्यक है। इसके बिना विचार मात्र से अन्तरंग दिगम्बरत्व स्थाशिवलतानार्थी सविधिसागर जी महाराज ही नहीं प्राप्त होगी। विचार मात्र से इष्ट मिद्धि नहीं होती।"क्षेत्रचूडामणि में' केही" ध्यानो गासबोधेन न हिसि विषं श्रम:"--- कोई बगुला को समक्ष रखकर उसे गाड़ मानकर गरह का ध्यान करे, तो उसका विष दूर नहीं होगा । इमसे स्पष्ट होता है. कि केवल कल्पना द्वारा साध्य की सिद्धि असंभव है। ___आत्मा के कर्तृत्व की गुत्थी को सुलझाते हुए अमृतचंद्रसूगि समयसार फलश में कहते हैं : कारममी स्पृशन्तु पृरुप मांख्या इवाप्याईताः। फरिं कलयन्तु तं किल मदा मेदावोधादधः ॥ कई तूदत्त-बोध-घाम-नियतं प्रत्यक्षमेव स्त्रयम् । पश्यन्तु च्युत-कर्मभाव मचल जाताम्मैक परम् ॥ २० ॥ अहन्त भगवान के भक्तों को यह उचित है कि वे सांख्यों के समान जीव को सर्वथा अफर्ता न मानें, किन्तु उनको भेदविज्ञान होने के पूर्व प्रात्मा को सदा कर्ता स्वीकार करना चाहिये । जब भेदविज्ञान की चपलब्धि हो जाये, व प्रात्मा का कर्मभाव रहिव अविनाशी, प्रयुद्धज्ञान का पुंज, प्रत्यक्ष रूप एक ज्ञाता के स्वरूप में दर्शन करो। यह भेद विज्ञान गागादि विकल्प रहित निर्विकल्प समाधि की अवस्था में उत्पन्न होता है। यह सर्व प्रकार के परिग्रह का परित्याग करने वाले .महान बमस के पाया जाता है। ऐसी स्थिति में विक्की गृहस्थ का कर्तव्य है, कि वह उस मच स्थिति का ध्येय बनाकर उसकी उपलब्धि के लिए इंद्रिय विजय तथा संयम के साधना पथ में प्रवृत्त हो मचाई के साथ पुरुषार्थ करे। आत्मवंचनायुक्त प्रमार पूर्ण प्रवृत्ति से परम पद की प्राप्ति असंभव है। जैन आगम के अनुसार संसारी जीव के सुख दुःस्वादि का कारण उसका पूर्व सचित कर्म है। वह यह नहीं मानता है, कि भज्ञो जन्तुग्नीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेद स्वर्ग या श्वभ्रमेव वा ॥ महाभारत वनपर्व ३०१२८॥ ___ यह अज्ञ जीव अपने सुख तया दुःख का स्वामी नहीं है। वह इस विषय में स्वतम्र नहीं है। वह ईश्वर के द्वारा प्रेरित हो कभी स्वर्ग में जावा है और कभी नरक में पहुँचा रखा है।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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