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कोई कोई दार्शनिक यह सोचते हैं, कि जीव तो सदा शुद्ध है। यह कर्मबंधन से पूर्णतया प्रथक है । कर्म प्रकृति का खेल हो जगत में दृष्टिगोचर होता है । सांख्य दर्शन को मान्यता है :
तम्मान वध्यतेऽमौन मुच्यते नापि संसरति कश्चित ।
'सुविधिसागर जी
मार्गदर्शक :मंमुवि अपने वियते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥ सां.त.काँ.६२ ।। इससे कोई भी पुरुष बंधता है, न मुक्त होता है, न परिभ्रमण करता है | अनेक यात्रयों को ग्रहण करने वाली प्रकृति का ही संसार होता है, बंध होता है तथा मोक्ष होता है ।
कर्तृत्व पर स्याद्वाद दृष्टि
इस विषय में स्थाद्वाद शासन की दृष्टि को स्पष्ट करते हुए जयसेनाचार्य लिखते हैं, "तसः स्थितमेत्तत्, एकान्तेन सांख्यदर्त्ता न भवति । किं तर्हि ? रागादिविकल्प-हित-समाधिलक्षण-भेदज्ञानकाले कमेषः कर्ता न भवति । शेष काले भवति " ( समयसार गाथा ३४४ - टीका ) -
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अतः यह बात निर्णीत है कि आत्मा एकान्तरूप से सांख्य मत के समान अकर्ता नहीं है फिर आत्मा कैसी है ! रागादि-विकल्प रहित समाधि रूप भेद विज्ञान के समय वह कर्मों का कर्ता नहीं है। शेष काल में जीव कर्मों का कर्ता होता है। अर्थात् जब वह प्रभेद समाधिरूप नहीं होता है, तब उसके रागादि के कारण बंध हुआ करता है।
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भेः विज्ञान वाला अविरत सम्यक्त्वो है और उसके बंध नहीं होता है, इस भ्रम के कारण वस्तु व्यवस्था मे बहुत गड़बड़ी आ जाती हैं । भेदविज्ञान निर्विकल्प समाधिका घोतक है, जो मुनिपद धारण करने के उपरान्त ही प्राप्त होती है। प्राकुलता तथा विकल्पजाल पूर्णा गृहस्वावस्था में उस परम प्रशान्त एवं अत्यन्त उज्ज्वल आत्म-परिरपति को कल्पना भी असंभव है । गृहस्थों के प्रशस्त रागलक्षणम्य शुभोपयोगस्य " प्रशस्त - राग लक्षण शुभपयोग का मुख्यता से सद्भाव होता है । चिनसार टीका ( गाथा २५४ ) में अमृतचंद्र स्वामी लिखते हैं " गृहिणा समस्त विरतेरभावेन शुद्धात्म प्रकाशनस्याभावात् ' " गृहस्थों के पूर्ण त्याग रूप महाव्रत नहीं होने से शुद्ध श्रात्मा का प्रकाशन नहीं होता है । दिगम्बर जैन श्रागम की यह देशना है " उपधसद्भावे सूर्या जायते " बाह्य परिह होने पर मूत्र परिणाम रूप अन्तरंग परिभद पाया जाता है। चांवल में सर्वप्रथम वाह्य छिलका दूर किया जाता है । तत्पश्चात् उसका अंदरंग मल दूर होने की स्थिति प्राप्त होवो है, जिसके दूर होने पर शुद्ध कुल की उपलब्धि होती है। बाहरी छिलका