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________________ ग्रंथकार के जीवन पर प्रकाश-गुणधर आचार्य के जीवन पर प्रकाश डालने वाली विशेष सामग्री का अभाव है। जयधवलाकार कषायपाहु सूत्र को अत्यन्त प्रामाणिक ग्रंथ सिद्ध करते हुए यह हेतु देते हैं, कि इसके रचयिता प्राचार्य का व्यक्तित्व महान था। वे "जियचउ-फसाया" क्रोध, मान, माया तथा लोभ स्वरूप कपायों के विजेता थे। वे "भग्ग-पंचिदिय-पसरा"-पांची इंद्रियों की स्यच्छदता वियुक्त अर्थात् इंद्रिय-विजेता थे। उन्होंने "चूरिय-घउ-सएएसेसा"-माहार, भय, मैथुन तथा परिग्रह रूप चार संज्ञाओं की सेना का क्षय किया था अर्थात् वे इन संज्ञाओं के वशवर्ती नहीं थे। वे ऋद्धि गारव, रस गाग्व तथा साता गारव रहित थे; "इडि-रस-साद-गारचुम्मुक्का " | परिग्रह सम्बन्धी तीन अभिलाषा को गारव दोष कहा है, "गारवाः परिग्रहगताः तीब्राभिलाषा"। ( मूलाराधना टीका गाथा ११२१)। विजयोदया टीका में कहा है, "ऋद्धित्यागासहता ऋद्धिगाखम् , अभिमतरसात्यागोऽनभिमतानावरश्च नितरां रसगारवम् । निकामभोजने निकामशयनादी व आसक्तिः सातगारवम् | " ऋद्धि प्रादि के होने पर उनसे अपने गौरव की भावना को धारण करना ऋद्धिगारय है। रसना को प्रिय लगने वाले रसों का त्याग न करना तथा अप्रिय रसों के प्रति मन में 'अनादर नहीं होना रखाखवा। सनीलीशीनसुविधाससफ्ट ती महाराष्ट्राव पाया जाता है। अधिक भोजन, अधिक निद्रा तथा विश्राम लेने में प्रवृत्ति या आसक्ति सात-गारव दोष है। महर्षि गुणधर भट्टारक में इन दोषों का अभाव था। वे रस परित्यागी, तपानुरक्त तथा बिनम्र प्रकृति युक्त साधुराज थे। वे "सरीर-दिरित्ता-सेस-परिगह-कलकुत्तिएण।"- शरीर को छोड़कर समस्त परिग्रह रूप कलंक से रहित थे। वे महान प्रतिभासंपन्न थे। समस्त शास्त्रों में पारंगत थे, "सयल-गंथस्थाबहारया” | वे मिथ्या प्रतिपादन करने में मिमित्त रूप कारण सामग्री से रहित थे। इस कारण उनका कथन प्रमाण रूप है, "अलीयकारणाभ वेण अमोहयया तेरए कारणेणेदे पमा" | पूर्वोक्त गुणों के कारण प्राचार्य गुणधर के सिवाय आर्यमंतु-नागहस्ति तथा तिवृषभ श्राचार्य की वाणी भी प्रमाणता को प्राप्त होती है। वक्ता को प्रामा रमकता के कारण वचनों में प्रमाणिकता पाती है। वीरसेन प्राचार्य के ये शब्द महत्वपूर्ण हैं,-"प्रमाणीभूत-पुरुष पंक्तिकमायाव-वचनकलापस्य नाप्रामाण्यम अतिप्रसंगास्"-प्रमाणकोट को प्राप्त पुरुष परपरा से उपलब्ध वचन समुदाय को अप्रमाए नहीं कह सकते है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष था जायगा। उससे सर्वत्र व्यवस्था का लोप हो जायगा । महान ज्ञानी, श्रेष्ठ चरित्र युक्त तथा पापभीरु महापुरुषों की कृतियों में पूर्णतया दोषों का अभाव रहता है, ऐसी मान्यता पूर्णतया न्याय्य तथा समीचीन है। समंतभद्र स्वामी ने प्राप्तमीमांसा में कहा है :-वक्तर्यनाप्त यद्धेतोः
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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