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उपरोक्त प्रकृतियों को छोड़कर शेष प्रकृतियों में भजनीयता नहीं है। वहां जिसका वेदक है, उसका वेदक ही है तथा जिसका अवेदक है, उसका वेदक है - "णवरि णामपयडीसु संठाणादीनं सिफ सुमेश सामाणिक जितेसि 'च' सद्हेण संगहो कायव्वों" ( १९८५ )
मार्गदर्शक :- आचार्य
यह कथन विशेष है कि नामकर्म की प्रकृतियों में संस्थानादि किन्हीं प्रकृतियों के उदय के विषय में भजनीयता है । उनका 'च' शब्द से संग्रह किया है।
सव्वस्स मोहणीयस्स आणुपुवीय संकमो होदि । लोभकसाये यिमा असंकमो होइ गायव्वो ॥ १३६ ॥
मोहनीय की सर्वप्रकृतियों का श्रानुपूर्वी क्रमसे संक्रमण होता हैं, किन्तु लोभ कषायका नियम से श्रसंक्रमण जानना चाहिये ।
विशेष- शंका आनुपूर्वी संक्रमण किसे कहते हैं ?
समाधान
क्रोध, मान, माया तथा लोभ इस परिपाटी क्रमसे संक्रमण होना श्रानुपर्थी संक्रमण है - " कोह- माण- मायालोभा एसा परिवाडी श्राणुपुब्वी संकमो णाम" ( १६८७ )
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कामगोच को माणं मायं तहेव लोभ च । सव्वं जहारपुपुच्ची वेदादी संछुहदि कम्मं ॥ १३७ ॥
नव नोकषाय और चार संज्वलन रुप त्रयोदश प्रकृतियों का संक्रमण करने वाला क्षपक नपुंसक वेद को प्रादि करके क्रोध, मान, माया और लोभ इन सबको श्रानुपूर्वी क्रमसे संक्रान्त करता है ।
विशेष -- त्रयोदश प्रकृतियों का संक्रामक जीव पहिले नपुंसकवेद तथा स्त्रीवेद का पुरुषवेद में संक्रमण करता है । इसके