SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ *। दूप्रभु " है। उस दृष्टि सांगाणा मार्गदर्शक: कल्पना नहीं करता है। उस दृष्टि से भव्य और अभव्य भी भिन्न नहीं ज्ञात होंगे । शुद्ध नय की अपेक्षा पुद्गल की स्कन्ध पर्याय का असद्भाव है। वह मय परमाणु को ही ग्रहण करता है । शुद्ध पुद्गल का परमाणु परमाणु-प्रचय रूप कम नहीं कहा जा सकता है। "जय काकतालगारी सुविधासागर जी महाराज गिार वस्तु का पूर्ण रूप से स्वरूप समझने के लिए विविध दृष्टियों को पताने वाले भिन्न २ नयों का प्राश्रय लेना सम्यग्ज्ञान का साधक है। एक ही हट को सत्य स्वीकार करने वाला वत्वज्ञान रूप अमृत की उपलब्धि नहीं कर पाता। वह अज्ञान और अविद्या के गहरे गर्व में गिर कर दुःखी होता है । अनुभव के स्तर पर यदि कर्मबंध के सम्बन्ध में विचार किया जाय, तो यह स्वीकार करना होगा, कि जोत्र पर्वमान पर्याय में अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत सुख तथा अनंतवीर्यादि प्रात्मगुणों से समलंकृत नहीं है, यद्यपि शक्ति की अपेक्षा ये गुण प्रात्मा में सर्वकारहते हैं। जिस प्रकार अग्नि के संपर्क से शीवक्ष स्वभाव वाला जल उरूपता को प्राप्त होता है, उसी प्रकार पौद्गलिक कर्मों के कारण जीव की अनंतरूप अवस्थाएं दृश्रा करती हैं। गुणों में धैभाविक परिणमन हो जाने से वह आत्मा मझानी, अशक्त और दुःखी देखा जाता है। उसे वर्तमान पर्याय में सकलज्ञ तथा अनंत सुखी मानना प्रशान्त चिंतन, तर्क और अनुभय के अनुरूप नहीं है। यदि जीत्र के सर्दशा बंधामाव जैनागम को मान्य होता, तो महाबंध, कसायपाहुड आदि प्रन्यों की रचनाएं क्यों की जाती? द्वादशांग पाणी में जिस प्रकार प्रात्मप्रसाद पूर्व है, उसी प्रकार फर्म प्रवाद पूर्व की अवस्थिति फही गई है। यदि यह जीव कादय के कारण परतंत्र न होता, तो मूत्र, पुरीष, रक्त, अस्थि आदि णित वस्तुओं के अद्भुत अजायबघर सहश मानव शरीर में क्यों कर निवास करता है ? इस अपवित्र शरीर में भीष का प्रावास उसकी भयंकर असमर्थता और मजबूरी को सूचित करते हैं । शरीर यथार्थ में जीव का कारागार ( Prison-house of the toul) तुल्य है । मुनि दीक्षा लेने के पूर्व जीबंधर स्वामी अपने शरीर के स्वरूप पर गंभीरता पूर्ण दृष्टि डालते हुए सोचते हैं अस्पष्ट दृष्टमग हि सामर्थ्यात्कर्मशिल्पिनः । ' सभ्यमूहे किमन्यत्स्यान्मल-मांसास्थि-मज्जतः ॥ ११-५१-१.चू. यथार्थ में फर्मरूपी शिरूपी की कुशलता के कारण शरीर अपने खसी रूप में नहीं दिखाई देता है। इसलिए यह रमणीय दिखाई पड़ता है, फिन्तु यदि विवेकी पुरुष विचार करे कोमल, मांस, अस्थि और मजाके
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy