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( ३२ ) सिवाय इस शरीर में क्या है ? जीवन्धर स्वामी का यह शरीर स्वरूप का चिन्सन कितना मार्मिक और सत्य है, इसे सहृदय व्यक्ति अनुभवकर सकता है । वे अपनी मात्मा से मंजशकरते आमने सुविहिासागर जी महाराज
दैवादन्तः स्वरूपं चेद्वहिर्देहस्य किं परैः । प्रास्तामनुमवेन्छेय-मात्मन् को नाम पश्यति ।। ११-५२।।
हे आत्मन् ! यदि दैववश देह का भीतरी भाग शरीर से बाहर प्रा जावे, वो इसके अनुभव की इच्छा वो दूर ही रहे, कोई इसे देखेगा भी नहीं।
घया आत्मा सर्वथा अमूर्तीक है ?-आत्मा और कर्मों के संबंध के विषय में अनेकान्त दृष्टि को स्पष्ट रूप से समझाते हुए पूज्यपाद स्वामी सर्वार्थसिद्धि मंथ में यह बागम की गाथा उद्धृत करते हैं।
यंध पडि एयसं लक्खणदो यदि तस्स णाणस । तम्दा अमुत्तिमायो णेगतो होदि जी वस्स ॥
बंध की अपेक्षा जीव और कर्म को पता है । स्वरूप की दृष्टि से दोनों में भिन्नता है। इससे जीव के अमूर्तपने के बारे में एकान्स नहीं है। इस प्रसंग में प्राचार्य अकलंकदेव का कथन विशेष उद्बोधक है-"अनादि. कर्मबंधसंतान-परतंत्रस्यात्मनः ममूर्ति प्रत्यनेकान्तो । बंधपर्यायं प्रत्येकत्वात स्यान्मूर्तम् । तथापि ज्ञानादि-स्वलक्षणा परित्यागात् स्यादतिः ।"मदमोह विभ्रमकरी सुरां पीत्वा नष्ट-स्मृति जनः काष्ठवदपरिस्पन्द उपलभ्यते, तथा कर्मेन्द्रियाभिभवादात्मा नाविभूत-स्वलक्षणे मूर्त इति निश्चीयते ( त. रा. प्र.८१) अनादिकालीन कर्मबंध की परंपरा के अधीन भात्मा के अमूर्तपने के विषय में एकान्तपना नहीं है। यंध पर्याय के प्रति एकत्व होने से मात्मा कथंचित् अभूनीक है, किन्तु अपने नानादि लक्षण का परित्याग न करने के कारण कथांचत् अमूर्तीक भी है। मद, मोई तथा श्रमको उत्पन्न करने वाली मदिवा को पीकर मनुष्य स्मृति शून्य हो काष्ठ सहश निश्चल 'हो जाता है तथा कर्मेन्द्रियों के अभिमव होने से अपने ज्ञानादि स्वलनरम का अप्रकाशन होने से आत्मा मूर्तीक निश्चय किया जाता है। - कर्म मूर्तीक क्यों यदि आत्मा को अमूर्तीक मानने के प्रमान उसे बांधने वाले कर्मों को भो अमूर्ती मान लें, वो क्या बापा है। कौ को मूर्तियुक्त स्वीकार करने में क्या कोई हेतु है ? -- समाधान-कर्म मूर्तीक हैं, क्योंकि कर्म का फल मूर्तीक द्रव्य