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( ३३ ) के संबंध से दृष्टिगोचर होसाङ्गिजिस प्रेमालाकिसमिसगढत्या महाराज विष । मूषक के विष द्वारा जो शरीर में शोथ आदि विकार उत्पन्न होता है. यह इद्रियगोचर होने से मूर्तिमान है । अत: उसका मूल कारण विष भी मूर्तिमान होना चाहिए । इसी प्रकार यह जीव भी मणि, पुष्प, अनितादि के निमित्त से सुख तथा सर्प, सिंहादि के निमित्त से दुःख रूप कर्म के विपाक का अनुभव करता है। अतः इस सुरव और दुःख का कारण जो कर्म है, वह भी मूर्तिमान मानना उचित है।
जयधवला टीका में लिखा है ( १ । ५७ )-" पि मुत्तं चेव । नं कथं णबदे ? मुसो सह-संबंधेण परिणामांतरगमण--हिगुवत्रसीदो। स च परिणामान्तर-गमणमसिद्धं तस्य तेण विणा जर-कुटबखयादीण विखासा-गुवयत्तीए परिणामंतरगमरस-सिद्धीयो ।"-कर्म मूत है, यह कैसे जाना ? इसका कारगा यह है कि यदि कर्म को मूते न माना जाय, तो मूर्त औषधि के संबंध से परिणामान्तर की उत्पत्ति नहीं हो मकती। अर्थात् रुग्णावस्था में औषधि प्रहस करने से रोग के कारण कर्मों की नपशांति देखी जाती है, वह नहीं बन सकती है। औषधि के द्वारा परिणामान्तर की प्राप्ति श्रसिद्ध नहीं है, क्योंकि परिणामास्तर के प्रभाव में ज्वर, क्रुष्ठ तथा क्षय श्रादि रोगों का विनाश नहीं बन सकता, अतः कर्म में परिणामान्तर की प्राप्ति होती है, यह बात सिद्ध होती है।
14- कर्म मूर्तिमान तथा पौद्गलिक हैं। जीव अमूर्तीक तथा अपौद्ल क है, अतः जीव से कर्मों को सर्वथा भिन्न मान लिया जाय तो क्या दोष है ? इस विषय में वीरसेन प्राचार्य जयधवला में इस प्रकार - प्रकाश डालते हैं;-"जीव से यदि कमों को भिन्न माना जाय, तो कमों से भिन्न होने के कारण श्रमूर्त जीत्र का मूर्त शरीर तथा औषधि के माथ संबंध नहीं हो सकता; इससे जीव तथा कर्मों का संबंध स्वीकार करना चाहिए। शरीर आदि के साथ जीत्र का संबंध नहीं है, ऐसा नहीं कह सकते हैं; कारण शरीर के छेदे जाने पर दुःख की उपलब्धि देखी जाती है। शरीर के छेदे जाने पर प्रात्मा में दुःख की उत्पत्ति होने में जीव तथा कमों का संबंध सूचित होता है। एक के छेदे जाने पर मर्यथा भिन्न दूसरी वस्तु में दुःख की उत्पत्ति नहीं पाई जाती । ऐसा मानन पर अव्यवस्था होगी।
जीव से कमों को भित्र मानने पर जीव के गमन करने पर शरीर का गमन नहीं होना चाहिए, काबरम दोनों में एकत्य का अभाव है । औषधि मेवन भी जीव को नीरोगता का संपादक नहीं होगा, कारण औषधि शरीर के द्वारा पीई गई है। अन्य के द्वारा पोई औषधि अन्य की नीरोगता को उत्पन्न नहीं करेगी। इस प्रकार की उपलब्धि नहीं होती।