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________________ वे कहते हैं, सच आदि इन्द्रियों के अगोचर अतीन्द्रिय आत्मासे दैव संबंधित है, और प्राणियों की समस्त क्रियाएं पुरुषार्थ पर निर्भर हैं, इससे उद्यम को ओर ध्यान देना चाहिये । ___आत्मावाससमें मचायानाधिक्षिामनमर्श हवाम किया गया है" श्रायुः श्रीवपुरादिकं यदि भवेत्पुण्यं पुरोषार्जितम् स्यात्सर्वं न भवेन तच्च नितरामायासितेप्यात्मनि । इत्यार्या सुविचार्य कार्य-कुशलाः कात्रे मंदोद्यमा : ! द्रागागामि-भवाथमेव सततं प्रीत्या यतन्ते तराम् ॥ ३७ ।। - यदि पूर्व संचित पुण्य पास में है, तो दीर्घ जीवन, धन, शरीर संपत्ति प्रादि मनोवांछित पदार्थ प्राप्त हो सकते हैं। यदि वह पुण्य रूप मामग्री नहीं है, तो स्वयं को अपार कष्ट देने पर भी वह सामग्री प्राप्त नहीं हो सकती। अतएव उचित अनुचित का सम्यक विचार करने में प्रवीम श्रेष्ठ पुरुष भावी जीवन निर्माण के विषय में शीत ही प्रीतिपूर्वक विशेष प्रयत्न करते है तथा इस लोक के कार्यों के विषय में मंद रूप से उद्यम करते हैं। नियतिवाद समीधा-कोई कोई प्रमादी व्यक्ति मानवोचित पुरुषार्थ से विमुख हो भावी दैव अथवा नियति ( Destiny ) का आश्रय होकर अपने मिथ्या पक्ष को उचित ठहराने की चेष्टा करते हैं। वे कहते हैं, जिस समय जहाँ जैसा होना है, उस समय वहाँ वैसा ही होगा। नियति के विधान को बदलने की किसी में भी जमना नहीं है। प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने ऐसे पौष शून्य तथा भीरुतापूर्ण भावों " को मिथ्यात्वका भेद नियतिवाद कहा है। जसु जदा जेण जहा जस्स य णियमेण होदि तनु तदा । तेण तहा तस्स हवे इदि वादो णियदिवादो दु । ८०२ । गो.क.|| - जो जिस काल में जिसके द्वारा, जैसे, जिसके, नियम से होता है, वह उस काल में, उससे उस प्रकार उसके होता है। इस प्रकार की ! मान्यता नियतिवाद है।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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