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________________ ( ५५ } द्वारा देव की उत्पत्ति क्यों होती है ? आज जिसे पुरुषार्थ कहा जाता है वही आगे देव कहा जाता है । पुरुषार्थ द्वारा बाँधा गया कर्म ही || आगे देष कहा जाता है। देवैकान्त की दुर्बलता को देख पुरुषार्थं का एकान्तवादी कहता है पूर्वबद्ध कर्मों में क्या ताकत है ? 'देवमविद्वांसः प्रमाणयति' – अज्ञानी लोग ही देव को प्रमाण मानते हैं । येषां बाहुबलं नास्ति, येषां नास्ति मनोबलम् | तेषां चंद्रबलं देव किं कुर्यादम्बरस्थितम् ॥ यश. ति. ३ | ४४ ॥ जिनकी भुजाओं में शक्ति नहीं है और जिनके पास मनोबल | नहीं है, ऐसे व्यक्तियों का आकाशवाटमात्र जी महाराज आदि की विशेष स्थिति ) क्या करेगा ? इस एकान्त विचार की समीक्षा करते हुए समंतभद्र स्वामी पूछते हैं - यह बताभो तुम्हारा पुरुषार्थ देव से कैसे उत्पन्न हुआ ? कहाचित् ग्रह मानो कि सब कुछ पुरुषार्थ से ही उत्पन्न होता है, ता सभी प्राणियों का पुरुषार्थं सफल होना चाहिये। कर्म के तीव्र उदय | आने पर पुरुषार्थं कार्य कारी नहीं होता है । समान पुरुषार्थ करते हुए भी पूर्वकृत कर्म के उदयानुसार फलों में भिन्नता पाई जाती है । समान श्रम करने वाले किसान देववश एक समान फसल नहीं काटते हैं । समन्वय पथ – दैव और पुरुषार्थ की एकान्त दृष्टि का निराकरण करते हुए सोमदेव सूरि इस प्रकार उनमें मैत्री स्थापित करते हैं । इस लोक में फल प्राप्ति देव अर्थात पूर्वोपार्जित कर्म तथा मानुष कर्म अर्थात् पुरुषार्थ इन दोनों के अधीन हैं। यदि ऐसा न माना जाय, तो क्या कारण हैं कि समान चेष्टा करने वालों के फलों में। भिन्नता प्राप्त होती हैं ? यशस्तिलक में कहा है- परस्परोपकारे जीवितौषधयोरिव । दैव- पौरुपयोति फलजन्मनि मन्यताम् ।। यश. ति. ३ | ३३ : जैसे औषधि जीवन के लिए हित प्रद हैं और आयु कर्म औषधि के प्रभाव के लिए आवश्यक है अर्थात् फलोत्पत्ति में श्रायुर्म औषधि सेवन परस्पर में एक दूसरे को लाभ पहुंचाते हैं, उसी प्रकार देव और पौरुष को वृति है ।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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