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________________ (५४ मार्गदर्शक :- 'आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज श्रो एकान्त नित्य पक्ष में क्रियाशीलता का अभाव हो जाने से देश से देशान्तर गमन रूप देश-क्रम नहीं होगा । शाश्वतिक रहने से कालक्रम नहीं बनेगा | सकल काल-कलाव्यापी वस्तु को विशेष काल में विद्यमान मानने पर नित्य पक्ष का व्याघात होगा । सहकारी कारस की अपेक्षा कम मानने पर यह प्रश्न होता है कि सहकारी कारण उस वस्तु में कुछ विशेषता उत्पन्न करते हैं या नहीं ? यदि विशेषता पैदा करते हैं, ऐसा मानते हो, तो नित्यत्य पक्ष को क्षति पहुँचती है। यदि विशेषता नहीं उत्पन्न करते हैं, यह पक्ष मानते हो, तो सहकारी की अपेक्षा लेना व्यथ हो जाता है | अकार्यकारी को सहयोगी सोचना तर्क बाधित है। नित्य पक्ष में युगपद् प्रकियाकारित्व मानने पर एक ही समय में एक ही चरण में समस्त कार्यों का प्रादुर्भाव होगा द्वितीय क्षण में क्रिया का अभाव होने से वस्तु अवस्तु रूप हो जायेगी । श्रतः नित्य पक्ष में भी अर्थक्रिया का अभाव होने से कर्मबंध की व्यवस्था नहीं बनेगी | अद्वैत पक्ष में भी कर्म सिद्धांत की मान्यता बाधित होती है । श्राप्त मीमांसा में कहा है: कर्मद्वैतं फलद्वैतं लोकतं च नो भवेत् । विद्याविद्याद्वयं न स्याद् बंध - मोक्षद्वयं तथा ॥ ३५॥ लौकिक-वैदिक कर्म, कुशल अकुशल कर्म, पुण्य-पाप कर्म लोकद्वैत, विश्वा श्रविद्या का देत तथा बंध- मोक्ष देत भी अ पत्र में सिद्ध नहीं होते । "अद्वैत" शब्द स्वयं "द्वैत" के सद्भाव का झापक है । प्रतिषेध्य के बिना संज्ञावान पदार्थ का प्रतिषेध नहीं बनता है । यदि युक्ति द्वारा अद्वैत तत्व को सिद्ध करते हो, तो साधन और साध्य का द्वैत उपस्थित होता है । यदि वचनमात्र से अद्वैत तत्र मानते हो, तो उसी न्याय से द्वैत पक्ष भी क्यों नहीं सिद्ध होगा ? कर्मसिद्धान्त का अतिरेक — कोई व्यक्ति देव, भाग्य, निर्यात आदि का नाम लेकर यह अतिरेक कर बैठते हैं, कि जैसा कुछ विधाता ने भाग्य में लिखा है. यह कोई नहीं टाल सकता है । "यदत्र भाले लिखित, वन स्थितस्यापि जायते" | देव ही शरण है । 'विधिरेव शरस' | एक मात्र दैव ही शरण है । इस देवैकान्त की आलोचना करते हुए समंतभद्र स्वामी कहते - 2 ] है - चैव से ही प्रयोजन सिद्ध होता है, तो यह बताओ औव के प्रयत्न
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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