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कर्मसिद्धान्त और एकान्तवाद-यह कर्म सिद्धान्त अनेकान्त शासन में ही सुव्यस्थित रूप से सुघटित होता है। तस्वर्षिसन के प्रकाश में एकान्तबादी सौगतादिक की दार्शनिक मान्यताओं के साथ उनके द्वारा स्वीकृत कर्म सिद्धान्त का कथन असम्बद्धसा अवगत होता है। महान ताकिक समंतभद्र स्वामी इस सम्बन्ध में समीक्षा करते हुए कहते हैं :
कुशलाऽकुशलं कर्म परलोकश्च न कचित् ।
एकान्त-ग्रह-रक्तेषु नाथ स्व-पर-वरिषु ॥मा. मी. ८॥ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज,
स्व सिद्धान्त तथा अनेकांत सिद्धान्त के विपक्षी नित्यैकान्त, चागि कैकान्त आदि पक्षों में अनुरक्तों के यहां कुशल अर्थात पुण्य कर्म, अकुशल अर्थात पाप कर्म तथा परलोक नहीं सिद्ध होते हैं।
नित्यैकान्त अश्रया अनित्यैकान्त पक्ष में क्रम तथा अक्रमपूर्वक अर्थक्रिया नहीं बनती है। अर्थक्रियाकारित्व के अभाव में पुण्य-पाप के बंधादि की व्यवस्था भी नहीं बनती है । बौद्ध दर्शन को मान्यता है, कि 'सर्व क्षणिक सत्वात' सत्व युक्त होने से सभी पदार्थ क्षणिक हैं। उसमें कमों का बंधन, फज़ का उपभोग आदि कथन स्वसिद्धान्त विपरीत पड़ता है । हिंसा आदि पाप कार्यों का करने वाला, अकुशल कर्म का फलानुभवन के पूर्व क्षय को प्राप्त हो जाने से, फलानुभवन नहीं करेगा। इस विषय पर समंतभद्र स्यामी इस प्रकार प्रकाश डालते हैं :
हिनस्त्यनभि-सन्धात न हिनस्स्यभिसंधिमत् । बध्यते तवयापेनं चित्तं बर्द्ध' न मुच्यते ||५१साश्रा. मी.
हिसा का संकल्प करने वाला चित्त द्वितीय क्षस में नष्ट हो चुका, (क्योंकि वह चरम स्थायी था), अतः संकल्पषिहीन चित्त के द्वारा प्रासघात संपन्न हुषा। हिंसक व्यक्ति भी दूसरे क्षस में नष्ट हो गया, अतः हिंसा के फलस्वरूप दण्ड का भोगने वाला चित्त ऐसा होगा, जिसने न ती हिंसा का संकल्प किया और न हिंसा का कार्य ही किया। इसी कम के अनुसार बंधन-बद्ध चित्त उत्तर क्षरस में नष्ट हो गया, अतः मुक्ति को पानेवाला चित्त नवीन ही होगा । सूक्ष्म चिंतन द्वारा ऐसी अव्यवस्था तथा अद्भुत स्थिति क्षणिकैकान्त पक्ष में उत्पन्न होती है । इस एकान्त पक्ष में नैतिक जिम्मेदारी का भी अभाव हो जाता है । कृत कर्मों का नाश और अकृषकों का फलोपभोग होगा।