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होता है। ऐसे निर्मल सम्यक्त्वो के विषय में यशस्तिलक में सोमदेवसूचि कहते हैं :
चक्रनीः संश्योन्कएठा नाश्रिीः दर्शनोत्सुका । तस्य दूरे न मुक्तिश्री: निर्दोष यस्य दर्शनम् ।। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
"""चक्रवर्ती की श्री उसको माश्रय ग्रहण करने को उत्कीरत रहती हैं, देवों को लक्ष्मी उसके दर्शन के लिए उत्सुक रहती है, तथा मोक्ष लक्ष्मी भी उसके समीप है, जिसका सम्यग्दर्शन निर्दोष है।
प्रात्मश्रद्धा युक्त अल्पशान भी यदि सम्यकचारित्र समन्वित है, तो मोक्ष की प्राप्ति सुनिश्चित है। बारित्र मोहरूप शत्रु पर विजय होने पर अल्पज्ञान भी अद्भुत शक्ति संपन्न हो जाता है। प्राचार्य समन्तभद्र प्राप्तमीमांसा में कहते हैं।
अज्ञानान्मोहिनो बंधो न ज्ञानाद्वीतमोहतः । ज्ञानस्तोकाच्च मोक्षः म्यादमोहान्मोहिनोन्यथा ॥ ६॥
-- मोहविशिष्ट अर्थात मिथ्यात्वयुक्त व्यक्ति के अलान में बंध होता है। मोह सारित व्यक्ति के ज्ञान से बंध नहीं होता है। मोह रहित अल्पन्नान से मोक्ष प्राप्त होता है। मोही के ज्ञान से बंध होता है।
यहां बंध का अन्वय-व्यतिरेक ज्ञान की न्यूनाधि कता के साथ नहीं हैं। मोह सहित ज्ञान घध का कारण है। मोह रहित ज्ञान मोक्ष का कारण है । इस कथन में मन्वय व्यतिरेक पाया जाता है।
शंका-यह कथन सूत्रकार उमास्वामी के "मिथ्यादर्शनाविपतिप्रमाद-कपाय-योगा बंध-हेतवः' (८ | १) इस सूत्र के विरुद्ध पड़ता है ?
समाधान-विद्यानदि स्वामी अष्टसहनी (२६७ ) में कहते हैं, कि मोहविशिष्ट अज्ञान में संक्षेप से मिथ्यादर्शन आदि का संग्रह किया गया है। इष्ट, निष्ट फल प्रदान करने में समर्थ कर्म बंधन का हेतु कषायैकार्थसमवायी अज्ञान के अविनाभावी मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय तथा योग को कहा गया है। मोह और अज्ञान में मिध्यात्व आदि का समावेश होता है।