SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ( २५० ) श्रांगोपांग, छह संहनन, पंचवर्ण, दोगंध, पंचरस, धाठ स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, दो विहायोगति, अपर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुभंग, सुस्वर, दुस्वर, धनादेय, प्रयशः कीर्ति, निर्माण, नीच गोत्र ये बहत्तर प्रकृतियां नाश को प्राप्त होती हैं । , अंतिम समय में उदय सहित वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी त्रस, बादर, पर्याप्त, उच्चगोत्र, प्रत्येक, तोयंकर नाम कर्म, श्रदेय तथा यशः कीर्ति इन त्रयोदश प्रकृतियों का क्षय होता है । अयोगकेवलीका काल "पंचह्नस्वाक्ष रोचा रणकालावच्छिन्न परिमाण: " ( २२९३ )-अ, इ, उ, ऋ, लृ इन पंच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण के काल प्रमाण कहा है। कर्म क्षय होने पर भगवान "स्वात्मोपलब्धिलक्षणां सिद्धि" -- स्वात्मोपलब्धि स्वरूप सिद्धि को तथा " सकल पुरुषार्थसिद्धः परमकाष्ठा-निष्ठमेकसमयेनैवोपगच्छति " - पुरुषार्थ सिद्धि की परमकाष्ठा की प्राप्ति को एक समय में प्राप्त होते हैं । कर्मक्षय होने के कुछ काल पश्चात् मोक्ष प्राप्त होता हो, ऐसी बात नहीं है । जयघवला टीका में कहा है " कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षान्तरमेव मोक्षपर्यायाविर्भावोपपत्तेः " संपूर्ण कर्मों के पूर्ण क्षय के अनंतर ही मोक्षपर्याय के श्राविर्भाव की उपपत्ति है । कर्मों के क्षय होने से सिद्ध परमात्मा को मुक्तात्मा कहते हैं । प्राचार्य कलंकदेव कहते हैं, भगवान कर्मों से मुक्त हुए हैं, किन्तु उन्होंने अपने आत्मगुणों की उपलब्धि होने से कथंचित् अमुक्तपना भी प्राप्त किया है । वे कर्मों के बंधन से मुक्त होने से मुक्त हैं तथा ज्ञानादि की प्राप्ति होने से प्रमुक्त भी हैं। अतः वे मुक्तामुक्त रूप हैं । शरीर रहित हो जाने से वे भगवान ज्ञानमूर्ति हो गए । चर्मचक्षुत्रों के अगोचर हो गए। उन्होंने अक्षय पदवी प्राप्त की है। उन ज्ञानमूर्ति परमात्मा को नमस्कार है ।
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy