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________________ इस कारण ग्रंथ रचना में उपयुक्त ग्रंथकार के विशुद्ध परि. मार्गदशामों केधाचा नाही विशाम्पा होता है, जिसके लिए शास्त्र के प्रारम्भ में मंगल रचना की जाती है । वीरसेन स्वामी ने कहा है "विसुद्धणयाहिप्पारण गुणहर-जइवसहेहि ण मंगलं कदं त्ति दट्ठवं"- शुद्ध नब के अभिप्राय से गुणधर प्राचार्य तथा यतिवृषभ ने मंगल नहीं किया यह जानना चाहिये। शंकाः-१ व्यवहार नय का आश्रय लेकर गौतम गणधर ने चौबीस अनुयोग द्वारों के प्रारम्भ में मंगल किया है। समाधान-व्यवहार नय असत्य नहीं है, क्योंकि उससे व्यवहार नय का अनुकरण करने वाले शिष्यों की प्रवृत्ति देखी जाती है ! उसका आश्रय लेना चाहिये, ऐसा मन में निश्चयकर गौतम स्थविर ने चौबीस अनुयोग द्वारों के प्रारम्भ में मंगल किया है। शंकाः-पुण्य कर्म का बंध करने की कामना करने वाले देशवती श्रावकों को मंगल करना उचित है, किन्तु कर्मों के क्षय की इच्छा करने वाले मुनियों के लिए वह उचित नहीं है। समाधान-यह ठीक नहीं है। पुण्य बंध के कारणों में श्रावकों तथा श्रमणों की प्रवृत्ति में अन्तर नहीं है। ऐसा न मानने पर १..-बवहारणयं पडच्च पुण गोदमसामिणा चदुबीसहमणियोगहाराणमादीए मंगलं कदं । ण च ववहारणो चप्पलो, तत्तो ववहारणयाणुसारि सिस्साण पउत्ति दंसणादो । जो बहजीवअणुग्गहणकारी ववहारपणाम्रो सो चेव समस्सिदव्यो त्ति मणेणाबहारिय गोदमथेरेण मंगलं तत्थ कयं । पुण्णकम्म-बंधत्थीणे देसव्वयाणं मंगलं करणं जुत्तं, ण मुणीणं कम्मक्खय-कंखुवाणमिदि ण वोत जुत्त, पुण्णबन्ध-हे उस पडि विसेसाभावादो। मंगलस्सेब सरागसंजमस्स वि परिचागप्पसंगादो परमागममुगजोगम्मि णियमेण मंगल-फलोवलंभादो, एदस्स प्रत्थविसेसस्स जाणावण8 गुणहरभडारएण गंथस्सादीए ण मंगलं कयं ( ताम्र पत्र प्रति पृष्ठ २)
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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