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( ६ ) कर्मरूप क्षेत्र में बोता हुआ कालादि सामग्री को प्राप्तकर सुख दुःख रूप बहुविध धान्यों को प्राप्त करता है । इस कर्म क्ष ेत्र को श्रनादि अनंत पंच परावर्तन संसार रूप सोमा है। यहां कुषतीति कषाय:" इस प्रकार निरुक्ति की गई है।
वास्तव में इस जीव के संसार में परिभ्रमण का मुख्य कारण कषायभाव है । इस ग्रंथ का प्रवास मिशा के विषय में पेज्जपाहुड मार्गदर्शक के अनुसार प्रतिपादन करना है ।
अन्य परमागम के ग्रंथों के प्रारंभ में मंगलाचरण की परंपरा पाई जाती है; किन्तु इस कषाय- प्राभृत सूत्र के आरंभ में मंगलस्मरण की परिपाटी का परिपालन नहीं हुआ है । इस सम्बन्ध में प्राचार्य वीरसेन ने जयधवला टीका में महत्वपूर्ण चर्चा करते हुए कहा है :
शंका- गुणधर भट्टारक ने गाथा सूत्रों के प्रारम्भ में तथा चूर्णिकार यतिवृषभ स्थविर ने चूर्णिसूत्रों के आदि में क्यों नहीं मंगल किया ?
समाधान -- यह कोई दोष नहीं है । प्रारब्ध कार्य के विघ्नों के क्षय हेतु मंगल किया जाता है । यह विघ्नविनाश रूप कार्य परमागम के उपयोग द्वारा भी संपन्न होता है । यह बात प्रसिद्ध नहीं है । शुभ और शुद्ध भावों से कर्मक्षय को न मानने पर कर्मों के क्षय का प्रभाव नहीं बनेगा । कहा भी है
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प्रदइया बंधयरा उवसम - खय - मिस्सया य भावो दु पारिणामिश्र करणोभय- वज्जिओ
मोक्खयरा । होइ ॥
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Mafia के कारण है। उपशम भाव, तथा क्षायोपथमिक भाव मोक्ष के कारण है । पारिणामिक भाव क्षायिक भाव न बंब का कारण है, न मोक्ष का कारण है ।