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________________ ( १७ ) स्पष्टोसिकतेलाही है विर्षिविणामीणंहासनात्य संखेज्जावलियानो" ---विशेष का प्रमाण सर्वत्र संख्यात प्रावली है । शंका --'तं कथं णब्वदे' १ यह कैसे जाना ? समाधान-'गुरुपदेसादो'--यह गुरुओं के उपदेशसे ज्ञात हुआ है। शंका--मनोयोग, वचनयोग तथा काययोग का जघन्यकाल एक समय मात्र भी पाया जाता है, उसका यहां क्यों नहीं ग्रहण किया गया? समाधान--१ निर्व्याघात रुप अवस्था में अर्थात् मरण आदि व्याघात रहित अवस्था में मन, बचन तथा काय योग का जघन्य काल एक समय मात्र नहीं पाया जाता है । २ दर्शनोपयोग का विषय अन्तरंग पदार्थ है। यदि ऐसा ने माना जाय, तो वह अनाकार नहीं होगा । शंका--अनाकार ग्रहण का अर्थ अव्यक्त ग्रहण मानने में क्या बाधा है ? समाधान--ऐसा मानने पर केवलदर्शन का लोप हो जायगा, क्योंकि प्रावरण रहित होने से केवलदर्शन का स्वभाव व्यक्त ग्रहण करने का है। प्रश्न-श्रुतज्ञान का क्या अर्थ है ? १ णिव्याघादेण मरणादिवाघादेण विणा घेतन्यानो चि भणिदं होदि [७२] २ अंतरंगविसयस्स उवजोगस्स दसणत्तब्भुवगमादो। तं कथं नवदे ? अणायारत्तणण्णहाणुववत्तीदो। प्रवत्तग्गणमणायारग्गहणमिदि किण्ण धिप्पदे १ ण एवं संते केवल-दसण-णिरावरणचादो वत्तग्गहण-सहावस्स अभावप्पसंगादो [६९]
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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