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________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज आवलिय अणायारे चविखदिय-सोद-घारण जिब्भाए । मण-वयंण-काय-पासे अवाय-ईहा-सुदुस्सासे ॥१५॥ . अनाकार अर्थात् दर्शनोपयोग का जघन्य काल संख्यात प्रावली प्रमाण है । इमसे विशेषाधिक चक्षु, इंद्रियावग्रह का जघन्य काल है। इस विशेषाधिक श्रोत्रावग्रह का जघन्य काल है। इससे विशेषाधिक प्राण का जघन्य अवग्रह काल है। इससे विशेषाधिक रसनावग्रह का जघन्य काल है। इससे विशेषाधिक मनोयोग का जघन्य काल है । इससे विशेषाधिक वचन योग का जघन्य काल है। इससे विशेषाधिक काययोग का जघन्य काल है । ___ इससे विशेषाधिक स्पर्शन इंद्रिय का जघन्य अवग्रह काल है । . इससे विशेषाधिक किसी भी इंद्रिय से उदभूत अवाय का जघन्य काल है। इससे विशेषाधिक ईहाज्ञान का जघन्य काल है। . इससे विशेषाधिक श्रुतज्ञान का जघन्य काल है। इससे विशेषाधिक श्वासोच्छवास का जघन्य काल का है। विशेष-भवाय ज्ञान दृढात्मक हैं। इस कारण अवाय में धारणा ज्ञान का भी अंतर्भाव किया गया है.। 'प्रावलिय पद अनेक प्रावलियों का बोधक है । इस पद के द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि अल्पबहुत्व के समस्त स्थानों के काल का प्रमाण मुहूतं, दिवस आदि नहीं है। 'पनीकार' शब्द दर्शनोपयोग का वाचक है--'उवजोगो ____ प्रणायारो णाम, दंसप्मुवजोगने ,त्ति मणिदं होदि' ( ६८ ) १. चक्षु इंद्रिय शब्दसे 'चक्षुइंद्रिय जनित ज्ञान को जानना चाहिये, यहां कार्य में कारण का उपचार किया है। ज्ञान कार्य है तथा इंद्रिय उस ज्ञान में कारण है । यहां ज्ञानरुप कार्य में कारण रुप' इंद्रिय का उपचार किया गया है। प्रागे ईहा और अवाए ज्ञान का उल्लेख होने से यहां अवग्रह ज्ञान का ग्रहण करना चाहिये। विशेषाधिक का १. चक्खिदियं च उत्ते चक्खिदियजणिदणाणस्स गहणं । कुदो कज्जे कारणोवयारादो [६८ ]
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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