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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
( ४८ ) संयम अर्थात् चारित्र से शून्य है, तो भी उसे मोक्ष का लाभ नहीं होगा।.. अमृत चंद्रसूरि टीका में लिखते हैं... "संयमशून्यात् श्रद्धानात सानाद्वा नास्ति सिद्धि-संबन शून्य श्रद्धा अथवा जान से सिद्धि नहीं प्रपल होती है।
सम्यग्ज्ञानी उच्छवास मात्र में उन कर्मों का वयं करता है, जिनका चय करोड़ों भवों में नहीं होता है; यह कथन किया जाता है। प्रमासरूप में यह गाथा उपस्थित की जाती है :
जं अएगाणी कम्मं सवेदि भव-मय-सहासकोडीहिं । तं गाणी तिहिं गुत्तो स्ववेइ उस्सासमेण ॥२३८॥प्र.मा.
यहाँ निर्विकल्प समाधि रूपं त्रिगुप्त स्वरूप बारित्र की महिमा अवगत होती है । मुमार के कारण रुपं मन, वचन तथा काय की क्रिया के निरोध रुप गुलि नामक सम्बक चारित्र है । अतः सम्यग्ज्ञान के साथ चारित्र का सगम आवश्यक है । द्रव्यसंग्रह में कम है :... . .
बहिरतर-किरिया-गोही भवकारण-पणासठं । णाणिस्म जं. जिणुत्तं तं परमं ; सम्माचारित्तं ॥४६॥
. संसार के कारणों का क्षय करने के लिये जो बाम और आभ्यंतर क्रियाओं के निरोध रूप नानी के जो कार्य होता है, उसे जिनेन्द्र देव ने सम्यक्चारित्र कहा है। इस बात वारसी के प्रकाश में अल्पकाल में होने वाली महान निर्जरा में ज्ञान के स्थान में सम्यक्चारित्र का महत्व ज्ञात होता है।
- शंका-समयसार में सम्यक्स्वी जीव के प्राभव और अंध का निरोध कहा है। इस कारण मारित्र का महत्व मानमा उचित नहीं प्रसील होती? .
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ममाधान-समयसार में उक्त गाथा के पश्चात् की गाथा द्वारा । यह स्पष्ट सूचित किया गया है, कि रागादि से विमुक्त पुरुष प्रबंधक
है। राग और द्वेष चारित्र मोहनीय के भेद है। चारित्र बारगम किये बिना का और द्वेष का प्रभाव सोचना अनुचित है । अतः चारित्र की प्रतिष्ठा को किसी प्रकार क्षति नहीं प्राप्त होती । समयसार की ये गाथाएँ ध्यान देने योग्य हैं।
मावो रागादिजुदों जीवण कदों दुबंधगो मरिणदो । रामादि-विप्पमुक्को प्रबंधगो जाणंगो गवरि ॥१६७॥