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. . ) मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिासागर जी महाराज
"संतपरुवणा, दव्वपमाणं, खेत्त---पमाणं, फोसणं कालो अंतरं भागाभागो अध्याबहुधे च"-सत्प्ररुपणा, द्रव्य प्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, स्पर्षन, काल, अन्तर, भागाभाग और अल्पबहुत्व ये पाठ अनुयोग द्वार हैं ।
उक्त अनुयोग द्वारों से कषायोपयुक्त जीवों का गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहार इन त्रयोदश मार्गणा-स्थान रुप अनुगमों से अन्वेषण करना चाहिये। इसके पश्चात् चार गति सम्बन्धी अल्पबहुत्व विषयक महादंडक करना चाहिये 'महादंडयं कादूण समत्ता पंचमी गाहा ।' ( १६४९ ) महादंडक करने पर पांचवीं गाथा का स्वरुप प्रतिपादन पूर्ण होता है। उदाहरणार्थ एक महादंडक इस प्रकार कहा गया है। ___ मनुष्यगति में मानोपयुक्त जीव सर्व स्तोक हैं । क्रोधोपयुक्त विशेषाधिक हैं । मायोपयुक्त विशेषाधिक हैं । लोभोपयुक्त विशेषाधिक हैं । नरक गति में लोभोपयुक्त मनुष्यगति को अपेक्षा असंख्यात गुणे हैं । मायोपयुक्त संख्याप्तगुणे हैं । मानोपयुक्त संख्यातगुणे हैं । क्रोधोपयुक्त संख्यातगुणित हैं।
देवगति में नरकगति के क्रोधोपयुक्तों की अपेक्षा क्रोधोपयुक्त देव असंख्यातगुण हैं | उनसे मानोपयुक्त संख्यातगुणित हैं। उनसे मायोपयुक्त संख्यातगुणे है । उनसे लोभोपयोक्त संख्यातगुणे हैं । तिर्यंचगति में देवगति में लोभोपयुक्त जीवों की अपेक्षा मानोपयुक्त तिर्यंच अनंतगणित है । उनसे क्रोधोरयुक्त विशेषाधिक हैं। उनसे मायोपयुक्त विशेषाधिक हैं। उनसे लोभोपयुक्त विशेषाधिक हैं । 'एबमेसो गइमरगणा विसो एगो महादंड प्रो' (१६५०) इस प्रकार यह गति मार्गणा संबंधी एक महादंडक हुग्रा । इस प्रकार इंद्रियादि मागंणा सम्बन्धी महादंडक ज्ञातव्य हैं। __ प्रब छठवी गाथा “जे जे जम्हि कसाए उवजुत्ता किण्णु भूदपुग्धा ते"- जो जो जीव वर्तमान काल में जिस कषायोपयुक्त