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________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधासागर जी महाराज काल और भाव ये चार प्रकार हैं । यहां नाम और स्थापना निक्षेप का ग्रहण नहीं हुआ है-"चविहो य णिक्खेको ति णाम-टुवणवज्जं दब्वं खेत कालो भावो च" (९६२) निर्गम निकलने को कहते हैं। उसके पाठ भेद कहे गए हैं। प्रकृति संक्रम, प्रकृति असंक्रम,प्रकृति स्थानसंक्रम, प्रकृति स्थानप्रसंक्रम, प्रकृति प्रतिग्रह, प्रकृति अप्रतिग्रह. प्रकृतिस्थान-प्रतिग्रह, प्रकृतिस्थान अप्रतिग्रह ये आठ निगम के भेद हैं । मिथ्यात्व प्रकृति का सम्यग्मिथ्यात्व अथवा सम्यक्त्व प्रकृति रुप से परिवर्तित होना प्रकृतिसंक्रम है। मिथ्यात्व का अन्य रुप में संक्रम नहीं होना प्रकृतिप्रसंक्रम है । मोहनीय की अट्ठावीस प्रकृतियों की सत्तावाले मिथ्यादृष्टि में सत्ताईस प्रकति रुप स्थान परिवर्तन को प्रकृतिस्थानसंक्रम कहते हैं। मोहनीय की अट्ठावीस प्रकृतियों की सत्तावाले मिथ्याष्टि का उसी रुप में रहना प्रकृतिस्थान-असंक्रम है। मिथ्यात्व का मिथ्यादृष्टि में पाया जाना प्रकृति प्रतिग्रह है। दर्शन मोहनीय का चरित्र मोहनीय में अथवा चरित्र मोहनीय का दर्शनमोहनीय के रुप में संक्रमण नहीं होना प्रकृति अप्रतिग्रह है। मिथ्यादृष्टि में बाईस प्रकृतियों के समुदाय रुप स्थान के पाए जाने को प्रकृतिस्थान प्रतिग्रह कहा है। मिथ्यादृष्टि में सोलह प्रकृति रुप स्थान के नहीं पाए जाने को प्रकृतिस्थान अप्रतिग्रह कहते हैं।' (९६३) . एकैकप्रकृतिसंक्रम के चतुर्विशति अनुयोगद्वार हैं । (१) समुत्कीर्तना (२) सर्वसंक्रम (३) नोसर्वसंक्रम (४) उत्कृष्टसंक्रम (५) अनुत्कष्ट संक्रम (६) जघन्य संक्रम (७) अजघन्य संक्रम () सादि संक्रम. (९) ननादि संक्रम (१०) ध्रुव संक्रम (११) अध्रुव
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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