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( १७५ ) पाहारकप्रांगोपांग तथा तीर्थकर प्रकृति भजनीय हैं, क्योंकि सब जीवों में उनका सद्भाव असंभव है। स्थिति सत्कर्म को मार्गणा में जिन प्रकृतियों का प्रकृति सत्कर्म होता है, उनमें आयु को छोड़कर शेष का अंतः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण सस्कर्म कहना चाहिए ।
अनुभाग सत्कर्म अप्रशस्त प्रकृतियों का विस्थानिक तथा प्रशस्त मार्गपतियों मनाई स्थामिका होता ही हरदेश सत्कर्म सर्व कर्मों का प्रजघन्य-अनुत्कृष्ट होता है, क्योंकि प्रकारान्तर संभव नहीं है।
प्रश्न- "के था अंसे णिबंधदि १"-कौन कौन कर्माशों को बांधता है ?
ममाधान-इस विषय में उपशामक का जिस प्रकार वर्णन हुया है, वैसा ही यहां भी ज्ञातव्य है। यहां प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभाग बंध तथा प्रदेश बंध का अनुमार्गण करना चाहिए ।
प्रश्न-"कदि प्रावलियं पक्सिंति-"कितनी प्रकृतियां उदयावली में प्रवेश करती है ?
समाधान- क्षपणा प्रारंभक के सभी मूल प्रकृतियां उदयावली में प्रविष्ट होती हैं। सत्ता में विद्यमान उत्तर प्रकृतियां उदयावली में प्रवेश करती हैं। "मूल पयडीयो सव्वाश्रो पविसंति । उत्तरपयडीयो वि जानो अस्थि तानो पविसति" ( १९४५)
प्रश्न--"कदिण्हं वा पवेसगो"-कितनी प्रकृतियों को उदयावली में प्रवेश करता है ?
समाधान-पायु और वेदनीय को छोड़कर बेद्यमान अर्थात् वेदन किए जाने वाले सर्वकर्मों को प्रवेश करता है।
पंचज्ञानावरण, चार दर्शनावरण का नियम से वेदक है। निद्रा प्रचला का स्यात् वेदक है। साता-असाता में से कोई एक, चार संज्वलन, तीन वेद, दो युगलों में से अन्यतर का नियम से वेदक है। भय जुगुप्सा का स्यात् वेदक है । मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रौदारिक, तैजस, कार्माणशरीर, छहों संस्थानों में