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________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज निमित्तान्तर की अपेक्षा न करके 'स्थान' ऐसी संज्ञा करने को नाम स्थान कहते हैं। वे पाठ भंग इसप्रकार होते हैं। (१) एक जीव (२) अनेक जीव (३) एक अजीब (४) अनेक अजीव (५) एक जीव अनेक अजीव (६) अनेक जीव एक अजीव (७) एक जीव एक अजीब (८) अनेक जीव अनेक अजीव ये आठ भंग हैं। सद्भाव असद्भाव स्वरूप से स्थापना को स्थापना स्थान कहते हैं। द्रव्य स्थान प्रागम तथा नो आगम के भेद से दो प्रकार है । उर्ध्व, मध्य लोकादि में प्रकृत्रिम संस्थान रूप से अवस्थान को क्षेत्र कहते हैं। समय, प्रावलि, क्षण, लव, मुहूर्त प्रादि काल के विकल्पों को श्रद्धा स्थान कहा है। - स्थिति बंध के वीचार स्थान या मोपान स्थान को पलवीचि स्थान कहा है। “पलिबीचिट्ठाणं णाम द्विदिबंधवीचारहाणाणि मोवाणट्ठाणाणि वा भवंति (१६८५)" । पर्वतादि ऊंचे स्थान को या मान्य स्थान को उच्चस्थान कहते हैं । सामायिकादि संयम के लब्धि स्थानों को अथवा संयमसहित प्रमत्तादिगुणस्थानों को मंयम स्थान कहते हैं। मन, वचन, काय की चंचलतारूप योगों को प्रयोग स्थान कहते हैं। भावस्थान अगम, नो प्रागम के भेद से दो प्रकार है। कषायों के लता, दारु आदि अनुभाग जनित उदयस्थानों को या प्रौदयिक आदि भावों को नोमागम भाव स्थान कहते हैं । भावस्थान का एक भेद भागम भाव स्थान है। V स्थान निक्षेपों पर नय विभाग द्वारा इसप्रकार प्रकाश डाला गया है। नैगम नय सर्व स्थानों को स्वीकार करता है। मंग्रह तथा व्यवहार नय पलिवीचि और उच्चस्थान को छोड़ शेष स्थानों को ग्रहण करते हैं। अजुसूत्र नय पलि बोचि स्थान, उच्चस्थान, स्थापना स्थान और श्रद्धास्थान को छोड़कर शेष स्थानों को ग्रहण करता है। शब्दनय नाम स्थान, संयमस्यान, क्षेत्रस्थान तथा भावस्थान को स्वीकार करता है। ~ "एत्थ भावडाणे पसदं"--यहाँ भाव स्थान से प्रयोजन है । यहां भावस्थान से नो, प्रागमभावस्थान का ग्रहण करना चाहिए,
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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