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________________ भाद्रप्रभु ... न पाटगाला ( ११५ ) खामगा . बुलडाणा कारण लता दारु आदि अनुभागस्थानों का इसी में अवस्थान माना गया है। ___ गाथासूत्रों के विषय में यह कहा गया है, कि चार सूत्रगाथा पूर्वोक्त सोलह स्थानों का दृष्टान्त पूर्वक अर्थसाधन करती हैं। इनमें से क्रोधकषाय के चार स्थानों का निदर्शन काल की अपेक्षा किया गया है। शेष तीन मान, माया, लोभ के द्वादश स्थानों का निदर्शन भाव की अपेक्षा किया है। ____ क्रोध के नगराजि, बालुकाराजि, आदि भेद काल की अपेक्षा कहे गए हैं। पाषाण की रेखा बहुत काल बीतने पर भी वैसी ही पाई अनीदरलक :पृथ्वीचाच श्रेलवितामाजामहासन्ति रहती है । इसी प्रकार अल्पकालपना बालुका एवं जल की रेखा में पाया जाता है। इसीप्रकार क्रोध कषाय के संस्कार या वासना के विषय में भी कालकृत विशेषता पाई जाती है। मान, माया तथा लोभ के विषय में जो दृष्टान्त दिए गए हैं वे भाव की अपेक्षा से संबंध रखते हैं। क्रोधकषाय के विषय में स्पष्टीकरण करते हुए इस प्रकार प्रतिपादन किया गया है:--जो जीव अंतर्मुहूर्त पर्यन्त रोप भाव को धारण कर क्रोध का वेदन करता है, वह उदकरात समान क्रोध का वेदन करता है। यह जल रेखा सदृश क्रोध संयम में मलिनता उत्पन्न करता है । संयम का घात नहीं करता है। “जो अंतर्मुहुर्त के पश्चात् अर्धमास पर्यन्त क्रोध का वेदन करता है, यह बालुका राजि समान क्रोध का बेदन करता है। यह क्रोध ___ जो अंतोमुहत्तिगं णिधाय कोहं वेदयदि सो उदय राइसमाणं कोहं वेदयदि । जो अंतोमुत्तादीदमंतो अद्धमासस्स कोधं वेददि सो बालुवराइसमाणं कोहं वेदयदि । जो अद्धमासादीदमंतो छण्हं मासाणं कोथं वेदयदि सो पुढविराइ समाणं को, वेदयदि । जो सन्वेसि भवेहि उवसमं ण गच्छइ सो पब्बदराइसमाणं कोहं वेदयदि । (पृ. १६५८)
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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