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________________ ( ११३ ) पेक्षा विशेष मार्ग इस गाथा के द्वारा और प्रदेश सुविधिसागर चारों कषायों के सोलह स्थानों का बंध और उदय के साथ सन्निकर्ष की भी सूचना की गई है । सणी खलु बंधड़ लदा-समाणं दारुयसमगं च । सणी चदुसु विभज्जो एवं सव्वत्थ कायव्वं ॥ ८५॥ असंज्ञी नियम से लता समान और दारु समान अनुभाग स्थान को बांधता है । संज्ञी जीव चारों स्थानों में भजनीय है । इसी प्रकार सभी मार्गणात्रों में बंध और प्रबंध का अनुगम करना चाहिए । विशेष- चूर्णिसूत्रकार करते हैं, चतुःस्थान अधिकार के ये सोलह गाथा-सूत्र हैं। इनकी प्रर्थ विभाषा की जाती है " एत्थ प्रत्यविभासा ।" चतुःस्थान के संबंध में एकैकनिक्षेप एवं स्थान निक्षेप करना चाहिये । "एक्कगं पुब्वनिक्वित्रां पुत्र्वपरुविदं च" - एकैकनिक्षेप पूर्व निक्षिप्त है तथा पूर्व प्ररूपित है । (१६८४ ) चतुःशब्द के प्ररुप से विवक्षित लता, दारु आदि स्थानों की अथवा क्रोधादिकषायों की एक एक करके नाम, स्थापना आदि के द्वारा प्ररूपणा करने को एकैकनिक्षेप कहते हैं । इन्हीं लता, दारु आदि विभिन्न अनुभाग शक्तियों के समुदायरुप से वाचक स्थान शब्द की नाम स्थापना आदि के द्वारा प्ररूपणा करने को स्थान- निक्षेप कहते हैं । नाम स्थान, स्थापना स्थान, द्रव्य स्थान, क्षेत्र स्थान, प्रद्धास्थान, पलिवीचि स्थान, उच्च स्थान, संयमस्थान, प्रयोगस्थान और भावस्थान ये दस भेद स्थान के हैं । जीव, प्रजीव और तदुभय के संयोग से उत्पन्न हुए आठ भंगों की १ एवं गाहासुतं प्रोघेणादेसेण च चउन्हं कसायाणं सोलसन्हं द्वाणाणं बंधोदयेहिं सष्णियास परुवणट्टमागयं ( १६८२ )
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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