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एवं दव्वे खेत्ते काले भावे य सरिावा य । संकमणयं णयविदू णेया सुद-देसिद-मुदारं ॥५॥
प्रकृतिकस्थानसंक्रम अधिकार में प्रादि संक्रम, जघन्य संक्रम, अल्पबहुत्व, काल, अंतर, भागाभाग तथा परिमाण अनुयोगद्वार हैं । इस प्रकार नय के ज्ञाताओं को श्रुतोपदिष्ट, उदार और गंभीर संक्रमण, द्रव्य, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव तथा सन्निपात ( सन्निकर्ष ) की अपेक्षा जानना चाहिये ।
विशेष-~-प्रकृतिस्थान संक्रम अधिकार में कितने अनुयोगद्वार हैं, इसका कथन किया है । 'अविरहित' पद से एक जीव की अपेक्षा काल को जानना चाहिये । 'सान्तर' पद से एक जीव की अपेक्षा अंतर, 'कतिभाग' से भागाभाग, 'एवं' पद से एक भंगविचय, 'द्रव्य पद से द्रव्यानुगम, 'क्षेत्र' पद से क्षेत्रानुगम तथा स्पर्शनानुगम, 'काल' पद से नाना जीवों की अपेक्षा कालाचामा प्राविहितामा महाराज _ 'भाव' पद से भावानुगम कहे गए हैं । प्रथम गाथा में प्रागत 'च'
शब्द के द्वारा ध्रुव, अध्रुव, सर्व, नोसर्व, उत्कृष्ट और जघन्य भेद युक्त संक्रमों को सूचित किया गया है ।
दूसरी गाथा में प्रागत 'च' शब्द के द्वारा भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि प्रादि अनुयोग द्वारों का ग्रहण हुआ है।
२ एवं दवे खेत्ते. अत्र वमित्यनेन नानाजीवसंबंधिनो भंग. विचयस्य संगहः । दब्बे इच्चेदेण सुत्तावप्रवेण दध्वपमाणाणुगमो, खेत्तरगहोण खेत्ताणुगमो, पोसणाणुगमो च । कालग्गहणेण वि कालंतराणं णाणाजीवविसयाणं सगहो गयब्बो । भावग्गणं च भावाणियोगद्दारस्स संगणफलं । एत्था हियरण णिसो तब्धिसयपरुवणाए तदाहारभावपदुप्पायणफलोत्ति दट्टब्यो । सण्णिवादग्गहणं च सण्णियासाणियोगद्दारस्स सूचणा मेत्तफलं । च सद्दो वि भुजगारपद-णिक्खेव-वड्ढीणं सप्पभेदाणं संगाहो । 'णयविद'-नयज्ञः 'णेया' नयेत्, प्रकाशयेदित्यर्थः (१०१५)