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________________ स्थिति संक्रमाधिकार १ कर्मों की स्थिति में संक्रम अर्थात् परिवर्तन को स्थिति मार्गदर्शकंक्रम झालामा विद्यासाई जी शितिका संक्रमण अपवर्तना, अथवा उद्वर्तना अथवा परप्रकतिरूप परिणमन से भी होता है। स्थिति को घटाना अपवर्तना है। अल्पकालीन स्थिति का उत्कर्षण करना उद्वर्तना है । संक्रमयोग्य प्रकृति की स्थिति को समानजातीय अन्य प्रकृति की स्थिति में परिवर्तित करने को संक्रमण या प्रकृत्यन्तर परिणमन कहते हैं । ज्ञानावरणादि मूलकों के स्थिति संक्रमण को मूल प्रकृति स्थितिसंक्रम कहते हैं। उत्तरप्रकतियों के स्थिति संक्रमण को उत्तरप्रकृति स्थिति संक्रम कहते हैं । मूलप्रकृतियों की स्थिति का संक्रमण केवल अपवर्तना और उद्वर्तना से ही होता है। उत्तर प्रकृतियों को स्थिति का संक्रमण अपवर्तना, उद्वर्तना तथा प्रकृत्यंतर-सक्रमण द्वारा होता है। ___ मूल प्रकृतियों का दूसरे कमरुन परिणमन नहीं होता है । मूल कर्मों के समान मोहनीय के भेद दर्शन-मोहनीय तथा चारित्र मोहनीय का परस्पर में संक्रमण नहीं होता है। प्रायुकर्म की चार प्रकृतियों में भी परस्पर संक्रमण नहीं होता है। जिस स्थिति में अपवर्तनादि तीनों न हों, उमे स्थिति-असंक्रम कहते हैं। जा ट्ठिदी प्रोकड्डिजदिवा उकाहिज्ज दिवा अण्णपडि संका. मिज्जइ वा सो विदिसंकमो । सेसो द्विदि प्रसंकमो । एत्थ मूलपयडि. द्विदीए पुण प्रोक्कडुवकणावसेण संकमो । उत्तर पयडिट्ठिदीए पुण प्रोकड्डुक्कडडणपर-पयडिसंकती हि संक्रमोदट्ठन्वो। एदेणोकड्डणादप्रो जिस्से द्विदीए णत्थि सा द्विदी द्विदि असंक्रमो ति भण्णदे (१०४१)
SR No.090249
Book TitleKashaypahud Sutra
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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